१५ सुखदुःखविवेक । सुख है और जिसका हम द्वैप करते हैं, अर्थात् जो हम नहीं चाहिये, वही दुःख है-उसे शास्त्र की दृष्टि से पूर्ण निर्दोष नहीं कह सकते; क्योंकि इस व्याख्या के अनुसार ' इष्ट ' शब्द का अर्थ इष्ट वस्तु या पदार्थ भी हो सकता है और, इस अर्थ को मानने से इष्ट पदार्थ को भी सुख कहना पड़ेगा । उदाहरणार्थ, प्यास लगने पर पानी इष्ट होता है, परन्तु इस बाय पदार्य 'पानी' को 'सुख' नहीं कहते। यदि ऐसा होगा तो नदी के पानी में डूबनेवाले के बारे में कहना पड़ेगा कि वह सुख में हया हुआ है ! सच बात यह है कि पानी पीने से जो इन्द्रिय की तृप्ति होती है उसे सुख कहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य इस इंद्रिय-तृप्ति या सुख को चाहता है; परन्तु इससे यह व्यापक सिद्धान्त नहीं बताया जा सकता, कि जिस जिसकी चाह होती है वह सब सुख ही है। इसी लिये नैय्यायिकों ने सुख-दुःख को वेदना कह कर उनकी व्याख्या इस तरह से की है " अनुकूलवेदनीयं सुख" जो वेदना हमारे अनुकूल है वह सुख है और प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं " जो वेदना हमारे प्रतिकूल है वह दुःख है। ये वेद- नाएँ जन्मसिद्ध अर्थात् मूल ही की और अनुभवगम्य हैं, इसलिये नैय्यायिकों की उक्त व्याख्या से बढ़ कर सुख-दुःख का अधिक उत्तम लक्षण बतलाया नहीं जा सकता । कोई यह कहे कि ये वेदनारूप सुख-दुःख केवल मनुष्य के व्यापारों से ही उत्पन्न होते हैं, तो यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि कभी कभी देवताओं के कोप से भी बड़े बड़े रोग और दुःख उत्पन हुआ करते हैं जिन्हें मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ता है। इसी लिये पैदान्त-अन्यों में सामान्यतः इन सुख-दुःखों के तीन भेद-प्राधिदेवक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक किये गये हैं। देवताओं की कृपा या कोप से जो सुख-दुःख मिलते हैं उन्हें 'आधिदैविक ' कहते हैं । बाह्य सृष्टि के, पृथ्वी आदि पञ्चमहाभूतात्मक, पदार्थों का मनुष्य की इन्द्रियों से संयोग होने पर, शीतोष्ण आदि के कारण जो सुख-दुःख हुआ करते हैं उन्हें 'आधि. भौतिक ' कहते हैं। और, ऐसे बाब संयोग के बिना ही होनेवाले अन्य सव सुख-दुःखों को आध्यात्मिक ' कहते हैं । यदि सुख-दुःख का यह वर्गीकरण स्वीकार किया जाय, तो शरीर ही के वात-पित्त आदि दोपों का परिणाम विगड़ जाने से उत्पन्न होनेवाले ज्वर आदि दुःखों को, तथा उन्हीं दोपों का परिणाम यथोचित रहने से अनुभव में आनेवाले शारीरिक स्वास्थ्य को, आध्यात्मिक सुख- दुःख कहना पड़ता है। क्योंकि, यद्यपि ये सुख-दुःख पञ्चभूतात्मक शरीर से सम्बन्ध रखते हैं, अर्थात् ये शारीरिक हैं, तथापि इमेशा यह नहीं कहा जा सकता किये शरीर से बाहर रहनेवाले पदार्थों के संयोग से पैदा हुए हैं। और, इसलिये आध्यात्मिक. सुख-दुःखों के, वेदान्त की दृष्टि से, फिर भी दो भेद-शारीरिक और मानसिक- करने पड़ते हैं। परन्तु, यदि इस प्रकार सुख-दुःखों के शारीरिक ' और ' सिक ' दो भेद कर दें तो फिर आधिदैविक सुख-दुःखों को भिन्न मानने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । क्योंकि, यह तो. स्पट ही है कि, देवताओं की कृपा मान-
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