आधिभौतिक सुखवाद। असंभव है। कारण यह है कि, यदि बाय सृष्टि के सुख-दुःखों के अवलोकन से कुछ सिद्धान्त निकाला जाय तो, सव सुख दुःखों के स्वभावतः अनित्य होने के कारण, उनके अपूर्ण आधार पर बने हुए नीति-सिद्धान्त भी वैसे ही अनित्य होंगे। और, ऐसी अवस्था में, सुख-दुःखों की कुछ भी परवा न करके सत्य के लिये जान दे देने के सत्य-धर्म की जो त्रिकालाबाधित नित्यता है, वह “ अधिकांश लोगों का अधिक सुख " के तत्त्व से सिद्ध नहीं हो सकेगी। इस पर यह आक्षेप किया जाता है कि जब सामान्य व्यवहारों में सत्य के लिये प्राण देने का समय आजाता है तो अच्छे अच्छे लोग भी असत्य पक्ष ग्रहण करने में संकोच नहीं करते, और उस समय हमारे शास्त्रकार भी ज्यादा सख्ती नहीं करते; तब सत्य आदि धर्मों की नित्यता क्यों माननी चाहिये ? परन्तु यह आक्षेप या दलील दीक नहीं है। क्योंकि जो लोग सत्य के लिये जान देने का साहस नहीं कर सकते वे भी अपने मुँह से इस नीति-धर्म की नित्यता को माना ही करते हैं। इसी लिये महाभारत में अर्थ, काम आदि पुरुषार्थों की सिन्दि कर देनेवाले सव व्यावहारिक धर्मों का विवेचन करके, अंत में भारत-सावित्री में (और विदुरनीति में भी) व्यासजी ने सब लोगों को यही उपदेश किया है:- न जातु कामान भयान लोभादर्भ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जावो नित्यः हेतुरस्य त्वनित्यः॥ अर्थात् " सुख-दुःख अनित्य हैं, परन्तु (नीति-) धर्म नित्य है। इसलिये सुख की इच्छा से, भय से, लोभ से अथवा माण-संकट आने पर भी धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिये । यह जीव नित्य है, और सुख-दुःख आदि विषय अनित्य हैं। इसी लिये च्यासजी उपदेश करते हैं कि अनित्य सुख-दुःखों का विचार न करके, नित्य-जीव का संबंध नित्य-धर्म से ही जोड़ देना चाहिये (मभा. स्व. ५.६०, उ. ३६.१२,१३) । यह देखने के लिये, कि व्यासजी का उक्त उपदेश उचित है या नहीं, हमें अब इस बात का विचार करना चाहिये कि सुख-दुःख का यथार्थ स्वरूप क्या है और नित्य सुख किसे कहते हैं।
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