पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२८

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आधिभौतिक सुखवाद । ८६ लंबित रहने के कारण, प्राधिभौतिक सुख-वाद की श्रेष्ठ श्रेणी भी, नीति-निर्णय के काम में, कैसी अपूर्ण सिद्ध हो जाती है। और इसे सिद्ध करने के लिये, हमारी समझ में, मिल साहय की युक्ति ही काफी है। " अधिकांश लोगों का अधिक सुख " घाले आधिभौतिक पन्य में सब से भारी दोप यह है कि उसमें मार्ग की बुद्धि या भाव का कुछ भी विचार नहीं किया जाता । मिल साहब के लेख ही से यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि, उस (मिल) की युक्ति को सच मान कर भी, इस तस्य का उपयोग सव स्थानों पर एक समान नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह केवल यात फल के अनुसार नीति का निर्णय करता है, अर्थात् उसका उपयोग किसी विशेष मर्यादा के भीतर भी किया जा सकता है या यों काहिये कि वह एकदेशीय है। इसके सिवा इस मत पर एफ और भी आक्षेप किया जा सकता है कि, 'स्वार्य की अपेक्षा परायं क्यों और कैसे श्रेष्ठ है?' इस प्रश्न की कुछ भी उपपत्ति न पतला कर ये लोग इस तत्व को सच मान लिया करते हैं। फल यह होता है कि उन्य स्वार्ग की येरोक वृद्धि होने लगती है। यदि स्वार्य पौर परायं दोनों याने मनुष्य के जन्म से ही रहती हैं, अर्थात स्वाभाविक हैं, तो प्रश्न होता है कि मैं स्वायं की अपेक्षा लोगों के सुख को अधिक महत्वपूर्ण क्यों समझू? यह उत्तर तो संतोपदायक हो ही नहीं सकता, कि तुम अधिकांश लोगों के अधिक सुख को देख कर ऐसा करो; क्योंकि मूल प्रश्न ही यह है कि मैं अधिकांश लोगों के अधिक सुख के लिये यत्न क्यों बसें ? यह यात सच है कि अन्य लोगों के हित में सपना भी हित सम्मिलित रहता है, इसलिये यह प्रश्न हमेशा नहीं उठता । परा प्राधिभौतिक पन्ध के उक्त तीसरे वर्ग की अपेक्षा इस अन्तिम (चौथे) वर्ग यही विशेषता है कि, इस आधिभौतिक पन्य के लोग यह मानते हैं कि, जब स्वार्य और परायं में विरोध खड़ा हो जाय तय उच्च स्वार्थ का त्याग करके पराव-साधन ही के लिये यत्न करना चाहिये । इस पन्य की उक्त विशेषता की कुछ भी उपपत्ति नहीं दी गई है। इस अभाव की ओर एक विद्वान् प्राधिभौतिक पंडित का ध्यान आकर्षित हुआ । उसने छोटे कीड़ों से लेकर मनुष्य तक सब सजीव प्राणियों के व्यवहार का सब निरीक्षण किया । और अन्त में, उसने यह सिद्धान्त निकाला कि, जव कि छोटे छोटे कीड़ों से ले कर मनुष्यों तक में यही गुग्ण अधिकाधिक बढ़ता और प्रगट होता चला आ रहा है कि वे स्वयं अपने ही समान अपनी सन्तानी और जातियों की रक्षा करते हैं और किसी को दुःख न देते हुए अपने यन्धुओं की यथासम्भव सहायता करते हैं, तय इम कह सकते हैं कि सजीव सृष्टि के आचरण का यही-परस्पर-सहायता का गुण- प्रधान नियम है। सजीव सृष्टि में यह नियम, पहले पहल सन्तानोत्पादन और सन्तान के लालन-पालन के बारे में देख पड़ता है। ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म कीड़ों की सृष्टि को देखने से, कि जिनमें सी-पुरुष का कुछ भेद नहीं है, ज्ञात होगा कि एक कीड़े की देह बढ़ते बढ़ते फूट जाती है और उससे दो कीड़े बन जाते हैं। अर्थात् यही गी.र, १२