आधिभौतिक सुखवाद । 52 & नहीं है। बाज़ार में जितने माप तौल नित्य उपयोग में लाये जाते हैं, उनमें थोड़ा बहुत फर्क रहता ही है, यस, यही कारण बतला कर यदि प्रमाणभूत सरकारी माप तौल में भी कुछ न्यूनाधिकता रखी जाय, तो क्या इनके खोटेपण के लिये इम अधि- कारियों को दोप नहीं देंगे? इसी न्याय का उपयोग कर्मयोगशास्त्र में भी किया जा सकता है । नीति-धर्म के पूर्ण, शुद्ध और नित्य स्वरूप का शास्त्रीय निर्णय करने के लिये ही नीतिशास्त्र की प्रवृत्ति हुई है और इस काम को यदि नीतिशास नहीं करेगा तो हम उसको निष्फल कह सकते हैं । सिविक का यह कथन सत्य है कि उच स्वार्थ " सामान्य मनुष्यों का मार्ग है । भर्तृहरि का मत भी ऐसा ही है। परतु यदि इस बात की खोज की जाय पराकाधा की नीतिमत्ता के विषय में उक्त सामान्य लोगों ही का क्या मत है, तो यह मालूम होगा कि सिविक ने उच्च स्वार्थ को जो महत्व दिया है वह भूल है। क्योंकि साधारण लोग भी यही कहते हैं कि निष्कलंक नीति के तथा सत्पुरुषों के आचरण के लिये यह कामचलाऊ मार्ग श्रेयस्कर नहीं है । इसी यात का वर्णन भर्तृहरि ने उक्त श्लोक में किया है। प्राधिभौतिक सुख-वादियों के इन तीन वर्गों का अब तक वर्णन किया गया:- (१) केवल स्वार्थी; (२) दूरदर्शी स्वार्थी; और (३) उभयवादी अर्थात् उयस्वार्थी। इन तीनों वर्गों के मुख्य मुख्य दोप भी बतला दिये गये हैं। परन्तु इतने ही से सब आधिभौतिक पन्ध पूरा नहीं हो जाता । इसके सागे का, और सब आधिभौतिक पन्यों में श्रेष्ठ, पन्य वह है जिसमें कुछ सात्त्विक तथा प्राधिभौतिक पण्डितों ने यह प्रति- पादन किया है कि “ एक ही मनुष्य के सुख को न देख कर, किन्तु सब मनुष्यजाति के आधिभौतिक सुख-दुःख के तारतम्य को देख कर ही, नैतिक कार्य-अकार्य का निर्णय करना चाहिये ।" एक ही कृत्य से, एक ही समय में, समाज के या संसार के सब लोगों को सुख होगा असम्भव है । कोई एक बात किसी को सुखकारक मालूम होती है तो वही बात दूसरे को दुःखदायक हो जाती है । परन्तु जैसे घुप्पू को प्रकाश नापसन्द होने के कारण कोई प्रकाश ही को त्याज्य नहीं कहता, उसी तरह यदि किसी विशिष्ट सम्प्रदाय को कोई बात लाभदायक मालूम न हो तो कर्मयोगशास्य में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह सभी लोगों को हितावह नहीं है । और, इसी लिये “ सब लोगों का सुख" इन शब्दों का अर्थ भी " अधिकांश लोगों का अधिक सुख" करना पड़ता है। इस पन्य के मत का सारांश यह है कि, "जिससे अधिकांश लोगों का अधिक सुख हो, उसी बात को नीति की 18-29 also Book IV. Uhap. IV.53p.474. यह तीसरा पन्थ कुछ सिविक का निकाला हुआ नहीं है; परन्तु सामान्य सुशिक्षित अंग्रेज लोग प्रायः इसी पन्य के अनु- गायी है। इसे Common senso morality कहते है। • वेन्थेम, मिल आदि पण्डित इस पन्थ के अगुआ है। Grestest good of the greatest number का हमने " अधिकांश लोगों का अधिक सुख" यह भाषान्तर किया है।
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