पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२१

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । के लिये प्राण दे दे, तो इस पंथवाले कदाचिन् उसी सुति कर देंगे परन्तु जव यह मौका स्वयं अपने ही उपर प्रा जायगा तब स्वायं पराये दोनों ही कर आश्रय करनेयाले ये लोग त्यार्य की ओर ही अधिक मुकेंगे । ये लोग, हॉब्स के समान परार्य को एक प्रकार का दूरदसी स्वार्य नहीं मानते; किन्तु ये समझने हैं कि हम स्वायं और पराव को तरान में तीन कर उनके तारतम्य अयान दनको न्यूना- धिकता का विचार करके बड़ी चतुराई से अपने स्वयं का निर्णय किया करते है। अतएव ये लोग अपने मार्ग को ददात ' या. उच्च स्वार्य (पत्नु नो स्थाय ही) कह कर उसकी बहाई भारत जिरते हैं। परनु देखिये, भर्तृहरि ने क्या कहा है: एके सत्पंदवाः परार्थघटकाः स्वार्यान् परित्यय ये सामान्यातु परायमुग्रममतः लायाऽविरोधन थे। तेऽमी मानबरामता: परीतं सार्थाय निम्नन्ति ने ये तु नन्ति निरर्थक परदितं ते से न जानीमहे ।। "जो अपने लाभ को त्याग कर दूसरों का हित करते हैं ये ही मचे सत्पुरुष हैं ! स्वाय को न छोड़ कर जो सोग लोकहित के लिये प्रयत्न करते हैं ये पुरुष सामान्य है और अपने मान के लिये जो दूसरों का नुक्सान करते हैं वे नीच, मनुष्य नहीं हैं- उनको मनुष्याकृति राजल समझना चाहिये ! परनु एक प्रकार के मनुष्य और भी हैं जो लोकहित का निरर्थक नाम किया करते ई-माम नहीं पड़ता कि ऐस मनुष्यों को क्या नाम दिया जाय" (भनु. नी. श. ४) !इसी नरह राज- धर्म की उत्तम स्थिति का वर्णन करते समय कालिदास ने भी कहा है:- स्वनुनिरभिलापः विद्यसे लोकहेतोः प्रतिदिनमयया ते वृतिरेवंविधय ॥ अर्थात् “तू अपने मुन्न की परवा न करके लोकहित के लिये प्रतिदिन 22 टाया करता है ! अथवा तेरी वृत्ति (पेशा) ही यही है" (शा. ५.७)। भर्तृहरि, या कालिदास यह जानना नहीं चाहते थे कि कनयोगशास्त्र में स्वार्य और परा को स्वीकार करके उन दोनों तत्वों के तारतन्य-भाव से धर्म-अधर्म या कर्म-प्रकर्म का निर्णय कैसे करना चाहिय; तथापि परार्य के लिये स्वार्य छोड़ देनेवाले पुरुषों को उन्होंन जो मयम स्यान दिया है, वही नीति को एटि से भी न्याय है। इस पर इस पन्य के लोगों का यह कहना है कि, " यद्यपि तात्विक दृष्टि से पा श्रेष्ठ, तथापि चरम सीमा की शुद्ध नीति की और न देख कर, इनें सिर्फ यही निक्षित करना है कि साधारण व्यवहार में सामान्य मनुष्यों को कैसे चलना चाहिये। और इसी लिये हम व्य स्वार्य को जो अप्रत्यान देते हैं वही व्यावहारिक दृष्टि से रवित है। पस्नु हमारी समझ के अनुसार इस युनियाद से कुछ लाम

  • अंग्रेजी में से enlightened self-interest करते हैं। हमने enlightened

का मापान्तर झन' या उच' दाहों से लिया है। † Sidgwiol's Hethods of Ethics, Book I. Chap. II. & 2, pp.