आधिभौतिक सुखवाद । 52 कर उन्होंने स्वार्थ और परार्थ में दिखनेवाले द्वैत के झगड़े की जड़ ही को काट डाला है। याज्ञवल्क्य के उक्त मत और संन्यासमार्गीय सत पर अधिक विचार आगे किया जायगा । यहाँ पर याज्ञवल्य आदिकों के मतों का उल्लेख यही दिखलाने के लिये किया गया है, कि " सामान्य मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वार्थ-विषयक अर्थात अात्मसुख-विषयक होती है"-इस एक ही बात को थोड़ा बहुत महत्त्व दे कर, अथवा इसी एक बात को सर्वथा अपवाद-रहित मान कर, इसारे प्राचीन अन्यकारी ने उसी बात से हॉन्स के विरुद्ध दूसरे अनुमान कैसे निकाले हैं। जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि मनुष्य का स्वभाव केवल स्वार्थमूलक अर्थात् तमोगुणी या राक्षसी नहीं है, जैसा कि अंग्रेज़ अन्यकार हॉब्स और फ्रेंच पंडित इल्वेशियल कहते हैं किन्तु मनुष्य-स्वभाव में त्वार्य के साथ ही परोपकार- बुद्धि की सायिक मनोवृत्ति भी जन्म से पाई जाती है अर्थात् जब यह सिद्ध हो चुका कि परोपकार केवल दूरदर्शी स्वार्य नहीं है। तय स्वार्य अर्थात् स्वानुख और पार्य अर्थात् दूसरों का सुख, इन दोनों तवों पर समष्टि रख कर कार्य-अकार्य-व्यवस्था- शास्त्र की रचना करने की आवश्यकता प्रतीत हुई । यही आधिभौतिकवादियों का तीसरा वर्ग है । इस पन में भी यह प्राधिभौतिक मत मान्य है कि स्वार्थ और परार्थ दोनों सांसारिक सुखवाचक हैं, सांसारिक सुख के परे कुछ भी नहीं है । भेद केवल इतना ही है कि, इस पन्य के लोग स्वार्थबुद्धि के समान ही परार्थबुद्धि को भी स्वाभाविक मानते हैं इसलिये वे कहते हैं कि नीति का विचार करते समय स्वार्थ के समान पार्थ की ओर भी ध्यान देना चाहिये । सामान्यतः स्वार्य और परार्थ में विरोध उत्पन्न नहीं होता इसलिये मनुष्य जो कुछ करता है वह सब प्रायः समाज के भी हित का होता है। यदि किसी ने धनसंचय किया तो उससे समस्त समाज का भी हित होता है। क्योंकि अनेक व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं और यदि उस समाज का प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की कुछ हानि न कर, अपना अपना लाभ करने लगे तो उससे कुल समाज का हित ही होगा । अतएच इस पन्य के लोगों ने निश्चय किया है कि अपने सुख की ओर दुर्लक्ष न करके यदि कोई मनुष्य लोकहित का कुछ काम कर सके तो ऐसा करना उसका कर्तव्य होगा । परन्तु इस पद के लोग परार्य की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करते; किन्तु वे यही कहते हैं कि हर समय अपनी बुद्धि के अनुसार इस बात का विचार करते रहो कि स्वार्थ श्रेष्ठ है या परार्थ । इसका परिणाम यह होता है कि जब स्वार्थ और परार्थ में विरोध उत्पन्न होता है तब इस प्रश्न का निर्णय करते समय बहुधा मनुष्य स्वार्थ ही की ओर अधिक झुक जाया करता है कि लोक-सुख के लिये अपने कितने सुख का त्याग करना चाहिये । उदाहरणार्थ, यदि स्वार्थ और परार्थ को एक समान प्रवल मान लें तो सत्य के लिये प्राण देने और राज्य खो देने की बात तो दूर ही रही, परन्तु इस पन्य के मत से यह भी निर्णय नहीं हो सकता कि सत्य के लिये द्रष्य की हानि को सहना चाहिये या नहीं। यदि कोई उदार मनुष्य परार्थ गी.र.११
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