८० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। . टीका करते हुए आनंदगिरि लिखते हैं कि "जब हमारे हृदय में कारुण्यवृत्ति जागृत होती है और हमको उससे दुःख होता है तब उस दुःख को हटाने के लिये इम अन्य लोगों पर दया और परोपकार किया करते हैं।" आनंदगिरि की यही युकि प्रायः हमारे सब संन्यासमार्गीय अन्यों में पाई जाती है, जिससे यह सिद्ध करने का प्रयत्न देख पड़ता है कि सब कर्म स्वार्यमूलक होने के कारगा त्याज्य हैं। परन्तु वृहदारण्यकोपनिषद (२.४६४.५.) में याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी का जो संवाद दो स्थानों पर है, उसमें इसी युक्तिवाद का उपयोग एक दूसरी ही अद्भुत रीति से किया गया है। मैत्रेयी ने पूछा "हम अमर कैले हाँगी ?" इस प्रश्न का उत्तर देते समय याज्ञवलय उससे कहते हैं “हे मैत्रेयी ! स्त्री अपने पति को, पति ही के लिये, नहीं चाहती; किंतु वह अपने आत्मा के लिये उसे चाहती है। इसी तरह हम अपने पुत्र पर उसके हितार्य प्रेम नहीं करते किनु हम स्वयं अपने ही लिये उसपर प्रेम करते हैं * । न्य, पशु और अन्य वस्तुओं के लिये भी यही न्याय उपयुक्त है। 'आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति'-अपने प्रात्मा के प्रीत्यर्थ ही सव पदार्य हमें प्रिय लगते हैं। और, यदि इस तरह सब प्रेम आत्म-मूलक है, तो क्या इमको सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, कि आत्मा (हम) क्या है? यह कह कर अन्त में याज्ञवलय ने यही उपदेश दिया है "भामा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तप्यो निदिध्यासि- तव्यः-अर्थात् सब से पहले यह देखो कि प्रात्मा कौन है, फिर उसके विषय में सुनो और उसका मनन तया ध्यान करो।" इस उपदेश के अनुसार एक बार आत्मा के सच्चे स्वरूप की पहचान होने पर सव जगत् आत्ममय देख पड़ने लगता है और स्वार्थ तथा परार्थ का भेद ही मन में रहने नहीं पाता । याज्ञवल्ल्य का यह युक्तिवाद दिखने में तो हॉस के मतानुसार ही है। परन्तु यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि इन दोनों से निकाले गये अनुमाग एक दूसरे के विरुद्ध हैं। हॉग्स स्वार्य ही को प्रधान मानता है और सब परार्य को दूरदर्शी स्वार्थ का ही एक स्वरूप मान कर वह कहता है कि इस संसार में स्वार्थ के सिवा और कुछ नहीं है। याज्ञवल्क्य 'स्वार्थ' शब्द के 'स्त्र' (अपना) पद के आधार पर दिखलाते हैं कि अध्यात्म दृष्टि से अपने एक ही आत्मा में सब प्राणियों का और सब प्राणियों में ही अपने आत्मा का, अविरोध भाव से समावेश कैसे होता है। यह दिखला
- That say you of natural affection ? Is that also a specios
of self-lore? Yes; All is self-lore. Your children are loved onls because they are Fours. Your friend for a like reason. And Your country engages you only so far as it has a connection mith Yourself. ह्यूम मे भी इसी युक्तिवाद का उल्लेख अपने of the Dignity or Meanness of Human Nature नामक निबन्ध में किया है। स्वयं पम का मत इससे भिन्न है। ! .