पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१११

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चौथा प्रकरण। आधिभौतिक सुखवाद । दुःखादुद्धिनते सर्वः सर्वस्य तुम्खमीसितम् । महाभारत, शांति. १३.६१॥ मनु आदि शास्त्रकारों ने "आता सत्यमस्तेनं" इत्यादि जो नियम बनाये हैं 'उनका कारण त्या है, वे नित्य है कि प्रनित्य उनकी ख्याति कितनी है, उनका मूलतत्व क्या है, यदि, इनमें से कोई दो परस्पर विरोधी धर्म एक ही समय में आपढ़ें तो किस मार्ग का स्वीकार करना चाहिये, इत्यादि प्रश्नों का निर्णय ऐसी सामान्य युक्तियों से नहीं हो सकता जो "महाजनो येन गतस्य पंचाः" या "अति सर्वत्र वर्जयेत् " आदि वचनों से सूचित होती हैं। इसलिय प्रय यह देखना चाहिये, कि इन प्रश्नों का उचित निर्णय कैसे हो और श्रेयस्कर मार्ग के निश्रित करने के लिये निन्ति युक्ति क्या है; अचान यह जानना चाहिये कि परस्पर विरुद्ध धर्मों की लधुता और गुरुता-न्यूनाधिक महत्ता-किस घटि से निश्चित की जाये । अन्य शास्त्रीय प्रतिपादनों के अनुसार कर्म-अफस-विवेचनसंबंधी प्रश्नों की भी चर्चा करने के तीन मार्ग है जैसे आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यानिक ! इनके भेदों का वर्णन पिद्धले प्रकरण में कर चुके हैं। हमारे शास्त्रकारों के मतानुसार प्राध्यामिक मार्ग होइन सब मागी में श्रेष्ठ है। परन्तु अध्यात्ममार्ग का महत्व पूर्ण रीति से ध्यान में लैंचने के लिये दूसरे दो मागों का भी विचार करना आवश्यक है, इसलिये पहले इस प्रकरण में कम-अकर्म-परीक्षा के आधिभौतिक मूलतत्त्वों की चर्चा की गई है। जिन आधिभौतिक शास्त्रों की आज कल बहुत उक्षति हुई है उनमें व्यक्त पदायों के याहा और दृश्य गुणों ही का विचार विशेषता से किया जाता है इसलिये जिन लोगों ने आधिभौतिक शास्त्रों के अध्ययन ही में अपनी उन विता दी है और जिनको इस शास्त्र की विचार पद्धति का अभिमान है, उन्हें वाय परिणामों के ही विचार करने की आदत सी पड़ जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी तत्वज्ञानदृष्टि थोड़ी बहुत संकुचित हो जाती है और किसी भी यात का विचार करते समय वे लोग आध्यात्मिक, पारलौकिक, अव्यक्त या अदृश्य कारणों को विशेष महत्व नहीं देते। परन्तु, यद्यपि वै लोग उक्त कारण से आध्यात्मिक और पारलौतिक दृष्टि को छोड़ दें, तथापि उन्हें यह मानना पड़ेगा कि मनुष्यों के सांसारिक व्यवहारों को सरलतापूर्वक चलाने और लोकसंग्रह करने के लिये नीति-नियमों की अत्यन्त श्राव. दुःख से सभी छड़कते हैं और सुख की इच्छा सभी करते हैं।"