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गीतारहस्य अयया कर्मयोगशास्त्र।

का और साथ ही साथ मोक्ष के उपायों का भी पूर्ण विवेचन कर इस प्रकार निश्चय किया गया है कि, एक तो कर्म कभी छूटते ही नहीं हैं और दूसरे: उनको छोड़ना भी नहीं चाहिये; एवं गीता में उस युक्ति का ज्ञानमूलक, भक्तिप्रधान के का-है। प्रतिपादन किया गया है कि जिससे कर्म करने पर भी कोई पाप नहीं लगता तथा अन्त में उसी से मोक्ष भी मिल जाता है । कर्म-अकर्म के या धर्म- अधर्म के इस विवेचन को ही वर्तमानकालीन निरे आधिभौतिक पण्डित नीतिशास्त्र कहते हैं । सामान्य पद्धति के अनुसार गीता के श्लोकों के क्रम से टीका लिख कर भी यह दिखलाया जा सकता था, कि यह विवेचन गीता में किस प्रकार किया गया है। परन्तु वेदान्त, मीमांसा, सांख्य, कर्मविपाक अथवा भक्ति प्रभृति शास्त्रों के जिन अनेक वादों अथवा प्रमेयों के आधार पर गीता में कर्मयोग का प्रतिपादन किया गया है, और जिनका उल्लेख कभी कभी बहुत ही संक्षिप्त रीति से पाया जाता है, उन शास्त्रीय सिद्धान्तों का पहले से ही ज्ञान हुए विना गीता के विवेचन का पूरा पूरा मर्म सहसा ध्यान में नहीं जमता । इसी लिये गीता में जो जो विषय अथवा सिद्धान्त आये हैं, उनका शास्त्रीय रीति से प्रकरणों में विभाग करके, प्रमुख प्रमुख युक्तियों सहित गीतारहस्य में उनका पहले संक्षेप में निरूपण किया गया है; और फिर वर्तमान युग की आलोचनात्मक पद्धति के अनुसार गीता के प्रमुख सिद्धान्तों की तुलना अन्यान्य धर्मों के और तत्वज्ञानों के सिद्धान्तों के साथ प्रसंगानुसार संक्षेप में कर दिखलाई गई है। इस पुस्तक के पूर्वार्ध में जो गीतारहस्य नामक निवन्ध है, वह इस रीति से कर्मयोग-विषयक एक छोटा सा किन्तु स्वतन्त्र प्रन्य ही कहा जा सकता है। जो हो; इस प्रकार के सामान्य निरुपण में गीता के प्रत्येक श्लोक का पूर्ण विचार हो नहीं सकता था । अतएव अन्त में, गीता के प्रत्येक श्र्लोक का अनुवाद दे दिया है और इसी के साथ साथ स्थान-स्थान पर यथेष्ट टिप्पणियाँ भी इसलिये जोड़ दी गई हैं कि जिसमें पूर्वापर सन्दर्भ पाठकों को समझ में भली भाँति आ जाय अथवा पुराने टीकाकारों ने अपने सम्प्रदाय की सिद्धि के लिये गीता के श्लोकों की जो खींचातानी की है, उसे पाठक समझ जायें (देखो गी. ३. १७-१९; ६.३, और १८.२); या वे सिद्धान्त सहज ही ज्ञात हो जाय कि जो गीतारहस्य में वत- लाये गये हैं; और यह भी ज्ञात हो जाय कि इनमें से कौन कौन सिद्धान्त गीता की संवादात्मक प्रणाली के अनुसार कहाँ कहाँ किस प्रकार आये हैं । इसमें सन्देह नहीं कि, ऐसा करने से कुछ विचारों की द्विक्ति अवश्य हो गई है; परन्तु गीतारहस्य का विवेचन, गीता के अनुवाद से पृथस्, इसलिये रखना पड़ा है कि गीता-अन्य के तात्पर्य के विषय में साधारण पाठकों में जो भ्रन फल गया है, वह भ्रम अन्य रीति