पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। समान स्वाभाविक हैं। मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद है तो केवल धर्म का (अयांत इन स्वाभाविक वृत्तियों को मयादित करने का)। जिस मनुष्य में यह धर्न नहीं है वह पशु के समान ही है!" आहारादि स्वाभाविक वृत्तियों को मयादित करने के विषय में मागवत का लोक पिछले प्रकरण में दिया गया है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी जब अर्जुन ले भगवान् कहते हैं (गी. ३.३८)- इंद्रियस्येद्रियस्यायं रागद्वेपो ध्यवास्थिती। तयोर्न वशमागच्छेत् ती सत्य परिपंथिनी ।। " प्रत्येक इंद्रिय में, अपने अपने उपभोग्य अथवा त्याच पदार्य के विषय में, जो प्रीति अथवा द्वैप होता है वह स्वभावसिद्ध है। इनके का में हमें नहीं होना चाहियः ज्योकि राग और द्वेप दोनों हमारे शत्रु हैं" तब भगवान् भी धर्म का वही लक्षण स्वीकार करते हैं जो त्वाभाविक मनोवृत्तियों को नयाँदित करने के विषय में ऊपर दिया गया है। मनुन्य की इन्द्रियाँ उसे पशु के समान प्राचरगा करने के लिये कहा करती हैं और उसकी बुद्धि सके विरुद्ध दिशा में खींचा करती है। इस कलहानि में, जो लोग अपने शरीर में संचार करनेवाले पशुत्व का यज्ञ करके कृतन्य (सल) होते हैं, उन्हें ही सवा याज्ञिक कहना चाहिये और वही धन्य भी हैं! धर्म को “ आचार-प्रमाव' कहिये, “ धारणा ' धनं मानिये अपवा चोदनालक्षण" धर्म समनिये; धर्म की, यानी व्यावहारिक नीतिबंधनों की, कोई भी व्याच्या लीजिये, परतु जय धर्म-अधर्म का संशय उत्पन होता है तब उसका निर्णय करने के लिये उपयुक्त तीनों लज्ञों का कुद्ध उपयोग नहीं होता। पहली ब्याख्या से सिर्फ यह मालूम होता है कि धर्म का मूल स्वरूप क्या है। क्सका बाह्य उपयोग दूसरी व्याख्या से मान्म होता है और तीसरी व्याल्या से यही बोध होता है कि पहले पहल किसी ने धर्म की मयांदा निश्चित कर दी है। परन्तु अनेक प्राचारों में भेद पाया जाता है। एक ही कर्म के अनेक परिणाम होते है। और अनेक ऋपियों की श्राज्ञा अयोर " चौड़ना मी मिस मित्र है। इन कारणों से संशय के समय धर्म-निर्णय के लिये किसी दूसरे मार्ग को ढूंढने की आवश्यकता होती है। यह मार्ग कौन सा है ? यही प्रश्न यन ने युधिष्टिर से किया था। इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया है कि- तकोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विमिन्नाः नैको ऋपिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मत्य तन्नं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पंयाः ।। “ यदि त को देखें सो वह चंचल है अर्थात् जिसकी बुद्धि जैसी तीम होती है वैसे ही अनेक प्रकार के अनेक अनुमान तक से निमन्न हो जाते हैं। श्रुति प्रांत वैज्ञा देखी जाय तो, वह भी भिन्न भिन्न है; और पाई स्मृतिशास्त्र को देखें तो ऐला एक भी ऋपि नहीं है जिसका वचन अन्य ऋपियों की अपेक्षा अधिक प्रमागा- भूत समझा जाये। अच्छा, (इस न्यावहारिक) धर्म का मूलतत्र देखा जाय