गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । का, सृष्टि के मूलभूत आत्मतत्त्व से ही, प्रारम्भ किया है । परन्तु इन ग्रन्थों के बदले केवल आधिभौतिक पंडितों के ही नीतिप्रन्य बाब कल हमारे यहाँ अंग्रेज़ी शालाओं में पढ़ाये जाते हैं, जिसका परिणाम यह देख पड़ता है कि गीता में बतलाये गये कर्मचोगशाब के मूलतत्वों का, इस लोगों में अंग्रेजी सीखे हुए बहुतेरे विद्वानों को भी, स्पष्ट बोध नहीं होता। उक्त विवेचन से ज्ञात हो जायगा कि व्यावहारिक नीतिवंधनों के लिये अथवा समाज-धारणा की व्यवस्था के लिये हम 'धर्म' शब्द का उपयोग क्यों करते हैं । महाभारत, भगवद्गीता आदि संस्कृत-ग्रन्यों में, तथा भाषा-अन्यों में भी, च्यावहारिक कर्तव्य अथवा नियम के अर्थ में धर्म शब्द का इमेशा उपयोग किया जाता है । कुलधर्म और कुलाचार, दोनों शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। भार- तीय युद्ध में एक समय, कर्ण के रथ का पहिया पृथ्वी ने निगल लिया था उसको उठा कर उपर लाने के लिये सय कर्ण अपने रथ से नीचे उतरा तव अर्जुन उसका वध करने के लिये उद्यत हुआ । यह देख कर कर्ण ने कहा " निःशस्त्र शत्रु को मारन धर्मयुद्ध नहीं है। इसे सुन कर श्रीकृष्ण ने कर्ण को कई पिछली बातों का सरण दिलाया, जैसे कि द्रौपदी का वनहरण कर लिया गया था, सब लोगों ने मिल कर अकेले अभिमन्यु का वध कर डाला था इत्यादि; और प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि हे कर्ण ! उस समय तेरा धर्म कहाँ गया था? इन सब बातों का वर्णन महाराष्ट्र कवि मोरोपन्त ने किया है । और महाभारत में भी, इस प्रसंग पर “कते धर्मस्तदा गतः" प्रश्न में, 'धर्म' शब्द ही का प्रयोग किया गया है तथा अंत में कहा गया है कि लो इस प्रकार अधर्म करे उसके साथ उसी तरह का वर्ताच करना ही उसको उचित दण्ड देना है । सारांश, क्या संस्कृत और क्या भापा, सभी अन्यों में 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सव नीति-नियमों के बारे में किया गया है, जो समाज-धारणा के लिये, शिष्टजनों के द्वारा, अध्यात्म-दृष्टि से बनाये गये हैं, इसलिये उसी शब्द का उपयोग हमने भी इस ग्रंथ में किया है। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा शिष्टाचार को धर्म की बुनि- याद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिये, शिष्टजनों के द्वारा, प्रचलित किये गये हो और जो सर्वमान्य हो चुके हों। और, इसी लिये, महाभारत (अनु. १०४. ३५७) में एवं स्मृति ग्रंथों में "प्राचारप्रभवो धर्मः" अथवा "आचारः परमोधर्म: (मनु. १. For), अथवा थमं का मूल बतलाते समय "वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वत्य च प्रियमा- मन" (मनु. २.१२) इत्यादि वचन कहे गये हैं। परन्तु कर्मयोगशास्त्र में इतने ही से काम नहीं चल सकता, इल यात का भी पूरा और मार्मिक विचार करना पड़ता हाकि उक आधार की प्रवृत्ति ही क्यों हुई इस आचार की प्रवृत्ति ही का कारण क्या है। हैं। इसके Critique of Pure Reason (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) और Critique of Practical Reason (वासनात्मक बुद्धि की मीमांसा ) ये दो अन्य प्रसिद्ध है। प्रोन कै मन्य का नाम Prolegomena of Ethics है।
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