UN कर्मयोगशास्त्र। इसलिये हमने भी इस अन्य में नीति, काव्य ' और 'धर्म' शब्दों का उपयोग एक ही वर्ष में किया है और मोन का विचार जिस स्थान पर करना है उस प्रकरण के अध्यात्म' और ' भक्तिमार्ग से स्वतंत्र नाम से हैं। महाभारत में धर्म शब्द अनेक स्थानों पर पाया है और जिस स्थान में कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म-संगत " उस स्थान में धर्म शब्द से कर्तव्यशास अयया तत्कालीन समाज-यवत्यागालाही का अर्थ पाया जाता है तथा निस स्थान में पारलौकिक कल्याण के मार्ग बतलाने का प्रसंग प्राया । उस स्थान पर, अर्थात, शान्तिपर्व के उत्तर में 'मोशधर्म' इरा विशिष्ट शब्द की योजना की गई है । इसी तरह मन्वादि स्मृति-ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्ध के विशिष्ट कमी अर्थात् चारों वर्णों के का, का वर्णन करते समय केवल धर्म शब्द का ही नर्गक सानों पर कई बार उपयोग किया गया है । और, भगवद्गीता में भी सत्र भगवान् अर्जुन से यह कह पर लड़ने के लिये कहते हैं कि "सधर्ममपि प्राध्यक्ष्य" (...) ष, और इलयो नभए "धमे निधनं श्रेयः परधर्मी भयावहः (नी. ३. ३५) मृत स्थान पर भी, 'धर्म' शब्द इस लोक के चातुर्वण्य के धनं " के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। पुराने जमाने के वापियों ने श्रम-विभागलप चातुर्वण्र्य संस्था इसलिये अलाई थी कि समाज के सय व्यवहार सरलता से होते जायें, किसी एक विशिष्ट गति या वर्ग पर ही सार थोझ न पढ़ने पावं और समाज का सभी दिशामा से रिना और पोपण भली भाँति होता है। यह बात मिल है कि कुछ समय के बाद चारों वगों के लोग केयल जातिमानोपजीची हो गये; अर्यान सशस्वकी को भूल कर वे केवल नामधारी प्रामण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्ध हो गये। इसमें संदेह नहीं कि शारंभ में यह व्यवस्या समाज-धारणार्य ही की गई थी और यदि चारों चों में से कोई भी एक वर्ण अपना धर्म अर्थात् कर्तव्य छोड़ दे, अथवा यदि कोई धर्गा समूल नष्ट हो जाय और उसकी स्थानपूर्ति दूसरे लोगों से न की जाय तो कुल समाज उतना ही पंगु हो कर धीरे धीरे नष्ट भी होने लगजाता है अथवा वह निष्ट अवस्था में तो नयश्य ही पहुँच जाता है । यद्यपि यह बात सच है कि यूरोप में से अनेक समाज हैं जिनका अभ्युदय चातुर्वण्र्य-व्यवला के बिना ही हुआ है। तथापि स्मरण रहे कि उन देशों में चातुर्वरयं-व्यवस्था चाहे न हो, परन्तु चारों वणी के सत्र धर्म, ज्ञाति- रूप से नहीं तो गुगण-विभागल्स ही से जागृत अवश्य रहते हैं। सारांश, जय हम धर्म शब्द का उपयोग व्यावहारिक टि से करते हैं तब हम यही देखा करते हैं, कि सव समाज का धारणा और पोपणा कैसे होता है । मनु ने कहा है-"असु- खोदकं " अर्थात जिसका परिणाम दुःखकारक होता है उस धर्मको छोड़ देना चाहिये (मनु. ४. १७६) और शान्तिपर्व के सत्यानृताध्याय (शां. १०६.१२) में धर्म-अधर्म का विवेचन करते हुए मीणा और उसको पूर्व कर्णपर्व में श्रीकृष्ण कहते हैं: गी.र.९
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