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रमा के जी में एक बार फिर आया, कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊँ, लेकिन मिथ्या-गौरव ने फिर उसकी जबान बन्द कर दी।

जालपा जब उससे पूछती, सराफों के रूपये देने जाते हो या नहीं, तो वह बराबर कहता, कुछ-न-कुछ हर महीने देता रहता हूँ। पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक सन्देह पैदा कर दिया था। वह उसी सन्देह को मिटाना चाहती थी। जरा देर के बाद उसने पूछा-सराफ़ों के तो अभी सब रुपये अदा न हुए होंगे?

रमा०——अब थोड़े ही बाकी है।

जालपा——कितने बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो ?

रमा०——हाँ, लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।

जालपा——तब तो पूरी गठरी है तुमने कहीं रतन के रुपये तो नहीं दे दिये?

रमा दिल में काँप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आखिर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अन्त हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ जाती। सम्भव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार कटु शब्द मुँँह से निकालती; लेकिन फिर शान्त हो जाती।दोनों मिलकर कोई न कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती। पर हाय रे आत्मगौरव ! रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुँँह बना लिया मानो जालपा ने उस पर कोई निष्ठुर प्रहार किया हो। बोला——रतन के रुपये क्यों देता। आज' चाहूँ, तो दो-चार हजार का माल ला सकता हूँ। कारीगरों की आदत देर करने की होती है ! सुनार की खटाई मशहूर है। "बस, और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो तैयार ही लाऊँगा या रूपये वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्योंकर हुई ? रकर भला में अपने 'खर्च में कैसे लाता?

जालपा——कुछ नहीं, मैंने योंही पूछा था।

जालपा को थोड़ी देर में नींद आ गयी, पर रमा फिर उसी उवेड़बुन में पड़ा। कहाँ से रुपये लाये ? अगर वह रमेश बाबू से साफ़-साफ कह

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