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बड़ी बात है। दो महीने भी माल चल जाय, तो इसके दूमे हाथ आ जायेंगे। आपसे बढ़कर कौन शौकीन होगा ? यह सब रईसों के ही पसन्द की चीजें हैं। गँवार लोग इनकी क़द्र क्या जानें।

रमा०- साढ़े आठ सौ बहुत होते हैं भई।

चरन०- रूपये का मुँह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेंगी, तो एक निगाह में सारे रुपये तर जायेंगे !

रमा को विश्वास था कि जालपा गहनों का मूल्य सुनकर आप ही हिचक जायेगी। दलाल से और ज्यादा बातचीत न की। अन्दर जाकर बड़े जोर से हँसा, और बोला- आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था माँजी?

रामेश्वरी कोई जबाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी-इन जड़ाऊ चीजों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं, जितने में तै हो जाये वही ठीक है।

रमा०- अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना दाम आँकती हो?

जालपा- छ: सौ से कम का नहीं है।

रमा का सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था; मगर छः और सात में बहुत थोड़ा ही अन्तर था। और सम्भव है चरनदास इतने ही पर राजी हो जाये। कुछ झेपकर बोला- कच्चे नगीने नहीं हैं ?

जालपा- कुछ भी हो, छ: सौ से ज्यादा का नहीं।

रमा०- और रिंग का? जालपा- अधिक-से-अधिक सौ रुपये।

रमा०- यहाँ भी चूकी, डेढ़ सौ मांगता है।

जालपा- लट्ठू है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।

रमा की चाल उलटी पड़ी। जालपा को इन चीजों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ था। आखिर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर भी वह सात सौ रुपये की चीजों के लिए मुँह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई

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