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हमें यह सुनकर अचम्भा होता है: लेकिन अन्य देश वालों के लिए नाक-कान का छिदामा कुछ कम अचम्भे की बात न होगा। बुरा सरज है, बहुत ही बुरा। वह धन जो भोजन में खर्च होना चाहिए, बाल-बच्चों का पेट काटकर गहनों की भेंट कर दिया जाता है। बच्चों को दूध न मिले, न सही। घी की गंध तक उनकी नाक में न पहुँचे न सही। मेवों और फलों के दर्शन उन्हें न हों, कोई परावह नहीं। पर देवी जी गहने जरूर पहनेंगी और स्वमीजी गहने जरूर बनवाएंगे। दस-दस, बीस-बीस रुपये पाने वाले बलकों को देखता हूँ, जो सड़ी हुई कोठरियों में पशुओं की भाँति जीवन काटते हैं, जिन्हें सबेरे का जलपान तक मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार रहती है। इस प्रथा से हमारा सर्वनाश होता जा रहा है। मैं तो कहता हूँ, यह गुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा कितना आत्मिक, नैतिक, दैहिक, आर्थिक और धार्मिक पतन हो रहा है, इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते!

रमा०--मैं तो समझता हूँ, ऐसा कोई भी देश नहीं, जहाँ स्त्रियाँ गहने न पहनती हो। क्या योरप में गहनों का रिवाज नहीं है?

रमेश०--तो तुम्हारा देश योरप नहीं है। वहाँ के लोग धनी है। वह धन लुटायें, उन्हें शोभा देता है। हम दरिद्र हैं, हमारी कमाई का एक पैसा भी फजूल न खर्च होना चाहिये।

रमेश बाबू इस वाद विवाद में शतरंज भूल गये। छुट्टी का दिन था ही, दो-चार मिलनेबाले और आ गये, रमानाय चुपके से खिसक आया। इस बहस में एक बात ऐसी थी, जो उसके दिल में बैठ गयी। उधार गहने लेने का विचार उसके मन से निकल गया। कहीं वह जल्दी रुपया न चुका सका तो कितनी बड़ी बदनामी होगी। सराफ़े तक गया अवश्य; पर किसी दुकान में घुसने का साहस न हुना। उसने निश्चय किया अभी तीन-चार महीने तक गहनों का नाम न लूँगा।

वह घर पहुँचा तो नौ बज गये थे। दयानाथ ने उसे देखा तो पूछा--आज सवेरै-सबेरै कहाँ चले गये थे?

रमाo--जरा बड़े बाबू से मिलने गया था।

दया०--घंटे-आध के लिये पुस्तकालय क्यों नहीं चले जाया करते?

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