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मैं कभी पूछता भी हूँ; तो मना करती है; लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है? जब से गहने चोरी चले गये, एक बोज़ भी नहीं बनी।

रमेश०--मालूम होता है, कमाने का दंग आ गया। क्यों न हों, कायस्थ के बच्चे हो। कितने रुपये जोड़ लिये?

रमा०--रुपये किसके पास हैं, वादे पर लूँगा?

रमेश०-–इस खब्त में न पड़ो! जब तक रुपये हाथ में न हों, बाजार की तरफ जाओ ही मत। गहनों से बुड्ढे नयो बीबियों का दिल खुश किया करते हैं। उन बेचारों के पास गहनों के सिदा होता ही क्या है। जवानों के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूँ, तो दो-चार हजार का माल दिलबा सकता हूँ, मगर भाई, कर्ज की लत बुरी है।

रमा०--मैं दो-तीन महीनों में सब रुपये चुका दूँगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।

रमेश०--तो वो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते? कर्ज से बड़ा पाप दूसरा नहीं। न इससे बड़ी विपत्ति दूसरी है। जहाँ एक बार धड़का खुला कि तुम आये दिन सराफ की दुकान पर खड़े नजर आओगे। दुरा न मानना। मैं जानता हूँ, तुम्हारी आमदनी अच्छी है, पर भविष्य के भरोसे पर और चाहे जो काम करो, लेकिन कर्ज कभी मत लो। गहनों का मरज न जाने इस दरिद्र देश में कैसे फैल गया। जिन लोगों को भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी गहनों के पीछे प्राण देते हैं। हर साल अरबों रुपये केवल सोना-चाँदी खरीदने में व्यय हो जाते हैं। संसार के और किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है? उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है, जिससे लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है। यहाँ धन श्रंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की जो महान शक्तियाँ हैं, उन दोनों का हो अन्त हो जाता है। बस वही समझ लो कि जिस देश के लोग जितने ही मूर्ख होंगे, वहाँ जेवरों का प्रचार भी उतना ही अधिक होगा। यहाँ तो खैर नाक-कान छिदाकर ही रह जाते हैं, मगर कई ऐसे देश भी हैं, जहाँ ओठ छेदकर लोग गहने पहनते हैं।

रमा ने कौतूहल से पूछा--वह कौन-सा देश है?

रमेश--इस समय ठीक याद नहीं आता, पर शायद अफीका हो।

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