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गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ।

रमा०--नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है। किसी सराफ से चीजें ले लूं, धीरे-धीरे उसके रुपये चुका हूँ।

जालपा ने दृढ़ता से कहा--नहीं, मेरे लिए कर्ज की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बेगहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कर्ज लेने को न कहंगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगो; लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखयी नहीं देती।

रमा०--बचत तो जरूर होती, और अच्छी होती; लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाये। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले नहीं मालूम था कि यहाँ इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।

जालया--तो अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धोरे।

रमा--खैर, तुम्हारी सलाह है तो एक-आध महीने और चुप रहता हूँ। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।

जालपा ने गद्गद् होकर कहा--तुम्हारे पास अभी उतने रुपये कहाँ होंगे?

रमा०--इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसन्द है? जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलभारी में से आभूषणों का सूचीपत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना आकर रखा हुआ है, सुतार बैठा हुआ है, केवल डिजाइन ही पसन्द करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसन्द किये। दोनों वास्तव में बहुत ही सुन्दर थे। पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक, एक हजार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमा०--ऐसी चीज तो शायद यहाँ बन भी न सके; मगर कल मैं जरा सराफे की सेर करूँगा।

जालपा ने पुस्तक बन्द करते हुए करण स्वर में कहा--इतने रुपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है।

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