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मचाकर पहले आ जाये और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें।

कई व्यापारियों ने कहा--हाँ बाबूजी, यह इंतजाम हो जाय तो बहुत अच्छा हो। भम्भड़ में बड़ी देर हो जाती है।

इतना नियंत्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफी था। वरिषक् समाज में ही उसके रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कालेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्र भर में न मिलती।

दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे दांव-पात मालूम हो गये। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गयीं जो खां साहब को ख्वाब में भी न सूझी थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी, जिसकी कोई हद नहीं। जब इस बांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाये, जिसमें आध आना चपरासियों का है? माल का तौल और परख में नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति, दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर बह क्यों छोड़ने लमा? विशेषकर जब बड़े बाबू उसके गहरे दोस्त थे! रमेश बाबू इस नवे रङ्गख्ट की कार्य पटुता पर मुग्ध हो गये! उसकी पीठ ठोंककर बोले-कायदे के अन्दर रहो और जो चाहो करो, तुम पर आंच तक न आने पावेगी।

रमा को आमदनी तेजी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखो कलम घिसनेबाले दफ़्तर के बाबुओं को सिगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी। पैसे को तो ठीकरा समझता है। क्या दिल है कि वाह! और जैसा दिल है, वैसी ही जबान भी। मालूम होता है नस-नस में शराफत भरी हुई है। वांबुओं का जब यह हाल था, तो चपरासियों और मुहरिरों का पूछना ही क्या! सब-के-सब रमा के बिना दामों के गुलाम थे। उन गरीबों को प्रामदमी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गयी थी। जहाँ गाढ़ीवान तक फटकार दिया करते थे, वहाँ अब अच्छे-अच्छे की गर्दम पकड़कर नीचे ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।

मगर जालपा की अभिलाषा अभी एक भी न पूरी हुई। नागपंचमी

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