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बिठाया पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा ? बहू आयी है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि उस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा। कई बार जी में आया, उसे बुलवाये; पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गये। कहाँ जायें ? सिनेमा देख आवें ? किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था; पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा। कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा।

रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे। और उसका हाथ पकड़कर बोले-भाइये, भाइये, बाबू रमानाथ साहब बहादुर ! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल ही गये। हाँ भाई, अब क्यों आओगे ? प्रेमिका की रसीली बातों का आनन्द यहाँ कहाँ। चोरी का कुछ पता चला?

रमा०-कुछ भी नहीं।

रमेश -बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखायी। नहीं सौ- दौ-सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बड़ा दुःख हुआ होगा?

रमा- कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रखा है। मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊँ। बाबूजी सुनते ही नहीं।

रमेश-बाबूजी के पास क्या कारूँ का खजाना रखा हुआ है ? अभी चार-पांच हजार खर्च किये हैं, फिर कहाँ से लाकर गहने बनवा दें ? दस बीस हजार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या। ५० होते ही क्या है ?

रमा-मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उड़ाते थे, नहीं तो बैठे बैठाये इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा।

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा-आओ एक बाजी हो जाये। फिर इस मसले को सोचें। इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमा-मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाये, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

ग़बन
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