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छोड़ेंगे। उसी प्रेम से भरे हुए निष्कपट हृदय में आग-सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देख कर उसके मुंह से ठंडी साँस निकल जाती थी। वह सुखप्रद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर कभी आयेंगे ? तीन हजार के गहने कैसे बनेंगे ? अगर नौकर भी हुअा, तो ऐसा कौन-सा बड़ा उहदा मिल जायेगा ? तीन हजार शायद तीन जन्म में भी न जमा हो। वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिससे वह जल्द-से-जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाये। कहीं उसके नाम कोई लॉटरी निकल आती ! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता, तो वह अवश्य बनाकर चला देता।

एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे अच्छे आदमियों से परिचय था; लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। वह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है जब तक किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलेमानस न दीखता था जो सब कुछ बिना कहे ही समझ जाय, और उसे कोई अच्छी सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और पायें तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊँगा कि बच्चा याद करें, मगर वह जरा गौर करता, तो उसे मालूम हो जाता, कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा मित्र न था, जिससे उसने बढ़-चढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस को भांति अन्दर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया। जागेश्वरी ने पानी लाकर दिया और पूछा-आज तुम दिन भर कहाँ रहे ? लो हाथ-मुँह धो डालो।

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