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जोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादक था। उसने कहा, जिस प्राणी को जंजीरों से जकड़ने के लिए वह भेजी गयी है, वह खुद दर्द से तड़प रहा है, उसे मरहम की जरूरत है, जंजीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है. धक्के का झोंका नहीं। जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गयी। मुझे अपनी नीचता, अपनी स्वार्थान्धता पर लज्जा आयी ! मेरा जीवन कितना अधम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त खुला, और जब मैं जालपा से मिली तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहे-सहे संस्कार भी मिट गये। विलास युक्त जीवन से मुझे घृणा हो गयी। मैंने निश्चय कर लिया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूंगी।

मगर इससे भी ज्यादा मार्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दर्शकों की आँखों में आंसू आ गये। उसके अन्तिम शब्द थे-मेरे पति निर्दोष हैं। ईश्वर की दृष्टि में ही नहीं, नीति की दृष्टि में भी वह निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलासासक्ति का प्रायश्चित करना लिखा था, वह उन्होंने किया। वह बाजार से मुंँह छिपाकर भागे। उन्होंने मुझ पर अगर कोई अत्याचार किया, तो वह यही कि मेरी इच्छाओं को पूरा करने में उन्होंने सदैव कल्पना से काम लिया। मुझे प्रसन्न करने के लिये, मुझे सुखी रखने के लिये उन्होंने अपने ऊपर बड़े-से-बड़े भार लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह यह भूल गये कि विलास-वृत्ति संतोष करना नहीं जानती। जहाँ मुझे रोकना उचित था वहां उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, और इस अवसर पर भी मुझे पूरा विश्वास है, मुझ पर अत्याचार करने की धमकी देकर ही उनकी जबान बन्द की गयी। अगर अपराधिनी हूँ, तो मैं हूँ, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पड़े। मानती हूँ कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने के लिये मजबूर किया। अगर मुझे विश्वास होता वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी, कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खड़ा करें। जिन दिनों यहाँ डाके पड़े, उन तारीखों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारा इसका जांँच कर सकती है। अगर जरूरत हो, तो म्युनिसिपिल बोर्ड के अधिकारियों का बयान लिया जा सकता है।

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