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इनको इतने कष्ट हुए, इसका मुझे खेद है। मेरी अक्ल पर परदा पड़ा हुआ था। स्वार्थ ने मुझे अन्धा कर रखा था। प्राणों के मोह ने, कष्टों के भय ने बुद्धि हर ली थी। कोई ग्रह सिर पर सवार था। इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शान्त कर दिया। शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े। इसका भय नहीं। जीता रहा तो फिर भेंट होगी। नहीं, मेरी बुराइयों को माफ़ करना और मुझे भूल जाना। तुम भी देवी दादा और दादी, मेरे अपराध क्षमा करना। तुम लोगों ने मेरे ऊपर जो दया की है, वह मरते दम तक न भूलूंगा। अगर जीता लौटा, तो शायद तुम लोगों की कुछ सेवा कर सकूँ। मेरी तो जिन्दगी सत्यानाश हो गयी। न दीन का हुआ न दुनिया का। यह भी कह देना, कि उनके गहने मैंने ही चुराये थे। सराफ़ को देने के लिए रुपये न थे। गहने लौटाना जरूरी था। इसलिए यह कुकर्म करना पड़ा। उसी का फल आज तक भोग रहा हूँ और शायद जब तक प्राण न निकल जायेंगे, भोगता रहूँगा। अगर उसी वक्त सफ़ाई से सारी कथा कह दी होती, तो चाहे उस वक्त इन्हें बुरा लगता, लेकिन यह विपत्ति सिर पर न आती। तुम्हें भी मैंने धोखा दिया था, दादा। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, कायस्थ हूँ। तुम जैसे देवता से मैंने कपट किया। न जाने इसका क्या दंड मिलेगा। सब कुछ क्षमा करना। बस, यही कहने आया था।

रमा बरामदे के नीचे उतर पड़ा और तेजी से कदम उठाता हुआ चल दिया। जालपा भी कोठे से उतरी; लेकिन नीचे आयी तो रमा का पता न था। बरामदे के नीचे उतरकर देवीदीन से बोली- किधर गये हैं दादा ?

देवीदीन ने कहा- मैंने कुछ नहीं देखा बहु। मेरी आंखें आंसू से भरी हुई थीं। वह अब न मिलेंगे। दौड़ते हुए गये थे।

जालपा कई मिनट तक सड़क पर निःस्पन्द-सी खड़ी रही। उन्हें कैसे रोक लूं ? इस वक्त वह कितने दुःखी हैं, कितने निराश हैं ! मेरे सिर पर न जाने क्या शैतान सवार था, कि उन्हें बुला न लिया। भविष्य का हाल कौन जानता है। न-जाने कब भेंट होगी। विवाहित जीवन के इन दो-ढाई सालों में कभी उनका हृदय अनुराग से इतना प्रकम्पित न हुआ था। विलासिनीरूप में यह केवल प्रेम के आवरण के दर्शन कर सकी। आज त्यागिनी बनकर उसने उसका असली रूप देखा। कितना मनोहर, कितना विशुद्ध, कितना

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