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मैंने अपने फायदे के लिए, किया ! सभी आदमी अपना फायदा सोचते हैं। मैंने भी सोचा। जब पुलिस के सैकड़ों आदमियों से कोई यह प्रश्न नहीं करता, तो उससे यह प्रश्न क्यों किया जाय ? इससे कोई फायदा नहीं।

मैंने कहा-अच्छा मान लो, तुम्हारा पति ऐसी मुखबिरी करता तो तुम क्या करती?

जालपा ने मेरी तरफ़ सहमी हुई आँखों से देखकर कहा-तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो? तुम खुद अपने दिल से इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढती ?

मैंने कहा-मैं तो उनसे कभी न बोलती; न कभी उनकी सूरत देखती।

जालपा ने गम्भीर चिन्ता के भाव से कहा-शायद मैं भी ऐसा ही समझती-या न समझती-कुछ कह नहीं सकती। आखिर पुलिस के अफसरों के घर में भी तो औरते हैं। क्यों नहीं अपने आदमियों को कुछ कहती हैं ? जिस तरह उनके हृदय अपने मरदों के से हो गये हैं, सम्भव है, मेरा हृदय भी वैसा ही हो जाता। इतने में अँधेरा हो गया। जालपा देवी ने कहा-मुझे देर हो रही है। बच्चे साथ हैं। कल हो सके तो फिर मिलियेगा। आपकी बातों में बड़ा आनन्द आता है।

मैं चलने लगी, तो उन्होंने चलते-चलते मुझसे फिर कहा- जरूर आइयेगा। यही मैं मिलूंगी।

लेकिन दस कदम के बाद फिर रुककर बोलीं-मैंने आपका नाम तो पूछा ही नहीं। अभी तुमसे बातें करने से जी नहीं भरा। देर न हो रही तो आओ कुछ देर और गप-शप करें। मैं वो चाहती ही थी। अपना नाम जोहरा बतला दिया।'

रमा ने पूछा-सच!

जोहरा- हाँ, हर्ज क्या था। पहले तो जालपा भी जरा चौंकी, पर कोई बात न समझी। समझ गयी, बंगाली मुसलमान होगी। हम दोनों उसके घर गयीं। उस जरा-से कठघरे में न-जाने वह कैसे बैठती है। एक तिल भी जगह नहीं। कहीं मटके हैं, कहीं पानी, कहीं खाट, कहीं बिछावन। सील और बदबू से नाक फटी जाती थी। खाना तैयार हो गया था। दिनेश की बहू बरतन धो रही थी। जालपा ने उसे उठा दिया-जाकर बच्चों को

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