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रमा को उनके साथ दस-पांच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेड़े, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता, तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने को इच्छा ही न होती। यहाँ कोई उसका हमदर्द न था, कोई इसका मित्र न था, एकान्त में मन मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शान्ति होती थी। स्मृतियों में भी अब कोई आनन्द न था। नहीं, वह स्मृतियाँ भी मानो उसके हृदय से मिट गयी थीं। एक प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था !

सातवाँ दिन था। आठ बज गये थे। आज एक बहुत अच्छा फिल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी। दारोगा ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि जोहरा आ पहुँची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आँख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल संवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हाँ, जोहरा का वह सादा आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ। वह केवल एक साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। ओठ मुरझाये हुए और चेहरे पर क्रीड़ामय चंचलता की जगह तेजमय गम्भीरता झलक रही थी।

वह एक मिनट खड़ी रही, तब रमा के पास जाकर बोली-क्या मुझसे नाराज हो ? बेकसूर, बिना कुछ पूछे-वूछे ?

रमा ने फिर भी कुछ जवाब न दिया। जूते पहनने लगा। जोहरा ने उसका हाथ पकड़कर कहा-क्या यह खफ़गी इसलिए है, कि मैं इतने दिनों आयी क्यों नहीं ?

रमा ने रूखाई से जवाब दिया-अगर तुम अब भी न आती, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आयीं।

यह कहने के साथ उसे खयाल आया,कि मैं इसके साथ अन्याय कर रहा हूँ। लज्जित नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगा।

जोहरा ने मुसकराकर कहा-यह अच्छी दिल्लगी है ! आपने ही तो एक काम सौंपा और जब वह काम करके लौटी, आप बिगड़ रहे हैं ! क्या तुमने वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाते पूरा हो जायगा? तुमने मुझे उस देवी से वरदान लेने भेजा, जो ऊपर

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