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गयी हो नहीं ? उसने इरादा किया, अगर कल जोहरा न आयी, तो उसके घर किसी को भेजूंगा। उसे दो-एक झपकियाँ आयी और सबेरा हो गया। फिर वही विकलता शुरू हुई, किसी को उसके घर भेज कर बुलवाना चाहिए। कम-से-कम यह तो मालूम हो जाय, कि वह घर पर है या नहीं।

दारोगा के पास जाकर बोला-रात तो आप आपे में न थे। दारोगा ने ईष्या को छिपाते हुए कहा -यह बात न थी! मैं महज आपको छेड़ रहा था।

रमा०–जोहरा रात आयी नहीं, जरा किसी को भेजकर पता तो लगवाइये बात क्या है। कहीं नाराज तो नहीं हो गयी ?

दारोगा ने बेदिली से कहा-उसे गरज होगी खुद आयेगी। किसी को भेजने की जरूरत नहीं है।

रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत आज बिगड़ गये। से चला आया। अब किससे कहे ? सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता था। समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोगा से तो थोड़ी-सी घनिष्ठता हो गयी थी।

एक हफ्ते तक उसे जोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आखिर बेवफ़ा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। मुमकिन है, पुलिस-अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो। कम-से-कम मुझे एक पत्र लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। इन लोगों से कह दे, तो उल्टी आँतें गले पड़ जायँ। मगर जोहरा बेवफ़ाई नहीं कर सकती। रमा की अन्तरात्मा इसकी गवाही देती थी। इस बात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दस-पाँच दिन तो जरूर जोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना ! उसकी वह हसरत-भरी बातें याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देती। जरूर कोई-न-कोई बात हो गयी है। वह अक्सर एकान्त में बैठकर जोहरा को याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा गयी। दारोगा आते,इंसपेक्टर साहब आते; पर

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