यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


जग्गो ने पछताते हुए कहा-बातचीत क्या हुई, पहले मैंने पूजा की और मैं चुप हुई तो बहू ने अच्छी तरह फूल-माला चढ़ाई।

जालपा ने सिर नीचा करके कहा——आदमी जैसा करेगा, वैसा भरेगा।

जग्गो——अपना ही समझकर तो मिलने आये थे।

जालपा——कोई बुलाने तो न गया था। कुछ दिनेश का पता लगा दादा ?।

देवी——हां, सब पूछ आया ! हबड़े में घर है, पता-ठिकाना सब मालूम हो गया।

जालपा——ने डरते-डरते कहा-इस वक्त चलोगे या कल किसी वक्त ?

देवी०——तुम्हारी जैसी मरजी। जी चाहे इसी वक्त चलो, मैं तैयार हूँ।

जालपा——थक गये होगे?

देवी०——इन कामों में थकान नहीं होती बेटी!

आठ बज गये थे। सड़क पर मोटरों का तांता बंधा हुआ था। सड़क की दोनों पटरियों पर हजारों स्त्री-पुरुष बने-ठने हँसते-बोलते चले जाते थे। जालपा ने सोचा, दुनिया कैसी अपने राग-रंग में मस्त है। जिसे उसके लिए मरना हो मरे, वह अपनी टेक न छोड़ेगी। हर एक अपना छोटा-सा मिट्ठी का घरौंदा बनाये बैठा है। देश बह जाय, उसे परवाह नहीं। उसका घरौंदा बचा रहे। उसके स्वार्ध में बाधा न पड़े। उसका भोला-भाला हृदय बाजार को बन्द देखकर खुश होता। काश ! सभी आदमी शोक से सिर झुकाये, त्योंरियां बदले, उन्मत्त-से नजर आते। सभी के चेहरे भीतर की जलन से लाल होते। वह न जानती थी, कि इस जन-सागर में ऐसी छोटी-छोटी कंकड़ियों के गिरने से एक हल्कोरा भी नहीं उठता, आवाज तक नहीं आती।

४३

रमा मोटर पर चला तो उसे कुछ सूझता न था। कुछ समझ में न आता था, कहाँ जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजान हो गये थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, जरा भी नहीं। जग्गो पर भी क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थ-लोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बड़ा अन्याय कर रहा है, इसका उसे केवल उस दिन ख्याल आया था जब

२७८
ग़बन