यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


घोड़े पर सवार देखेगी, फूली न समायेगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आँखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे, जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई। मैंने चलते-चलते समझाया था, उसका कुछ असर न हुआ ? ओह ! इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी ! कोई हरज नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज नहीं। इन्हीं सन्तप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची।

एक महीना गुज़र गया। जालपा कई दिन तक बहुत विकल रही। कई बार उन्माद-सा हुआ कि अभी सारी कथा किसी पत्र में छपवा दूँ, सारी कलई खोल दूंँ, सारे हवाई किले ढा दूँ। धीरे-धीरे यह सभी उद्वेग शान्त हो गये। आत्मा की गहराइयों में छिपी हुई शक्ति उसकी जुबान बन्द कर देती थी। रमा को उसने हृदय से निकाल दिया था। उसके प्रति अब उसे क्रोध न था, द्वेष न थी, दया भी न थी, केवल उदासीनता थी। उसके मर जाने की सूचना पाकर भी शायद वह न रोती। हाँ, इसे ईश्वरीय विधान की एक लीला, माया का एक निर्मम हास्य, एक क्रूर क्रीड़ा समझकर थोड़ी देर के लिए वह दुःखी हो जाती। प्रणय का वह बंधन जो उसके गले में ढाई साल पहले पड़ा था, टूट चुका था; पर उसका निशान बाकी था। रमा को इस बीच में उसने कई बार मोटर पर अपने घर के सामने से जाते देखा। उसकी आँखे किसी को खोजती हुई मालूम होती थीं। उन आँखों में कुछ लज्जा थी, कुछ क्षमा याचना; पर जालपा ने कभी उसकी तरफ आँख न उठायी। वह शायद इस वक्त आकर उसके पैरों पर गिर पड़ता, तो भी वह उसकी ओर न ताकती। रमा को इस घृणित कायरता और महान् स्वार्थपरता ने जालपा के हृदय को मानो चीर डाला था। फिर भी उस प्रणय-बन्धन का निशान अभी बना हुआ था। रमा की वह प्रेम-विह्वल मूर्ति, जिसे देखकर एक दिन वह गद्गद हो जाती थी, कभी-कभी उसके हृदय में छाये हुए अँधेरे में दोण, मलीन, निरानन्द ज्योत्स्ना की भांति प्रवेश करती और एक क्षण के लिए वह स्मृतियाँ विलाप कर उठतीं। फिर उसी अन्धकार और नीरवता का पर्दा पड़ जाता। उसके लिए भविष्य की मृदु स्मृतियाँ न थीं केवल कठोर नीरस वर्तमान विकराल रूप से खड़ा घूर रहा था।

२७२
ग़बन