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रतन ने कहा——मुझे किसी चीज की ज़रूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आयी थी। उसी तरह लौट जाऊँगी।

मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा——आपका सब कुछ है। यह आप कैसे कहती हैं, कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पन्द्रह रुपया किराया है। मैं तो समझता हूँ आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीजें आप कहें यहाँ से पहुंचा दूँ।

रतन ने व्यंगमय आँखों से देखकर कहा——'तुमने पन्द्रह रुपये का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया। इतना बड़ा मकान लेकर मैं क्या करूँगी। मेरे लिए एक कोठरी काफ़ी है, जो दो रुपये में मिल जायगी। सोने के लिये ज़मीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो उतना ही अच्छा।

मणिभूषण ने बड़े विनम्र भाव से कहा—— आखिर आप चाहती क्या हैं ? कहिए तो!

रतन उत्तेजित होकर बोली—— मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊँगी। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मेरे लिए वैसे ही है जैसे किसी गैर आदमी की चीज। मैं दया की भिखारिनी न बनूंगी। तुम इन चीजों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानती। दया की चीज न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हजारों विधवाएं हैं, जो मेहनत मजदूरी करके अपना निर्वाह कर रही हैं। मैं भी वैसी ही हूँ। मैं भी उसी तरह, मजूरी करूँगी और अगर न कर सकूँगी, तो किसी गड्ढे में डूब मरूँगी। जो अपना पेट भी न पाल सके उसे जीते रहने का, दूसरों का बोझ बनने का कोई हक नहीं है।

यह कहती हुई रतन घर से निकली और द्वार की ओर चली। मणिभूषण ने उसका रास्ता रोक कर कहा——अगर आपकी इच्छा न हो तो मैं बँगला अभी न बेचूं।

रतन ने जलती हुई आँखों से उसकी ओर देखा ! उसका चेहरा तमतमाया हुआ था, आँसुओं के उमड़ते हुए वेग को रोककर बोली——मैंने कह दिया, इस घर की चीज से मेरा नाता नहीं है। मैं किराये की लौंडी थी। लौंडी का

                                         

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