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जालपा ने जोर देकर कहा—— साफ़ बतायो, अपना बयान बदलोगे, या नहीं ?

रमा ने मानो कोने में दबकर कहा——कहता तो हूँ, बदल दूंगा !

'मेरे कहने से या अपने दिल से ?'

'तुम्हारे कहने से नहीं, अपने दिल से ! मुझे खुद ही ऐसी बात से घृणा है। सिर्फ जरा हिचक थी। वह तुमने निकाल दी।

फिर और बाते होने लगी। कैसे पता चला कि रमा ने रुपये उड़ा दिये है? रुपये अदा कैसे हो गये ? और लोगों को गबन की खबर हुई या घर ही में दबकर रह गयी? रतन पर क्या गुजरी? गोपी क्यों इतनी जल्दी चाल गया ? दोनों कुछ पढ़ रहे हैं या उनी तरह आवारा फिरा करते है ? आखिर में अम्मा और दादा का जिक्र ग्रामा। फिर जीवन के मनसूबे बांधे जाले खगे। जालपा ने कहा——वर चलकर रान से थोड़ो-सी जमीन ले लें और प्रानन्द से खेती-बारी करें। रमा ने कहा——उससे कहीं अच्छा है, कि यहां चाय की दुकान खोलें। इस पर दोनों में मुवाहसा हुा। माखिर रमा को हार माननी पड़ी। यहां रहकर वह घर की देखभाल न कर सकता था.' भाइयों को शिक्षा न दे सकता था, और न माता-पिता का सेवा-सत्कार कर सकता था। आखिर घरवालों के प्रति भी तो उसका कुछ कर्तव्य था। रमा निरुत्तर हो गया।

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रमा मुंह अँधेरे अपने बैंगले पर पहुंचा। किसी को कानोकान खबर न

नाश्ता करके रमा ने खत साफ किया, कपड़े पहने और दारोगा के पास जा पहुँचा। त्योरियां बढ़ी हुई थी। दारोगा ने पुछा——रियल तो है, नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की ?

रमा ने खड़े-खड़े कहा——नौकरों ने नहीं मापने शरारत की है। प्राप मातहतों, अफसरों और सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।

दारोगा ने कुछ घबराकर कहा—— आखिर बात क्या है, कहिए सो

रमा०——बात यही है, कि मैं इस मुभामले में अब कोई शहादत न दूंगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली और वारस्ट

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