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देवीदीन के सामने आकर कहा-भैया आ गये ! यह क्या मोटर जा रही है।

वह कहता हुआ वह ऊपर आ गया। जालपा ने उत्सुकला को संकोच से दबाते हुए कहा-तुमसे कुछ कहा?

देवी०- और क्या कहते, खाली राम-राम की। मैंने कुशल पूछी। हाथ से दिलासा देते चले गये। तुमने देखा कि नहीं ?

जालपा ने सिर झुकाकर कहा-देखा क्यों नहीं। खिड़की पर जरा खड़ी थी।

'उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?' 'खिड़की की ओर ताकते तो थे।' 'बहुत चकराये होंगे, कि यह कौन है !' 'कुछ मालूम हुआ मुकदमा कब पेश होगा ?' 'कल ही तो।' 'कल ही ! इतनी जल्द ? तब तो जो कुछ करना हैं, आज ही करना होगा। किसी तरह मेरा खत उन्हें मिल जाता, तो काम बन जाता।'

देवीदीन ने इस तरह ताका मानो कह रहा है, तुम इस काम को जितना आसान समझती हो उतना आसान नहीं।

जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा-क्या तुम्हें सन्देह है कि वह अपना बयान बदलने पर राजी न होंगे ?

देवीदीन को अब इसे स्वीकार करने के सिवा और कोई उपाय न सूझा। बोला-हाँ बहूजी, मुझे इसका बहुत अन्देशा है और सच पूछो तो है भी जोखिम। अगर वह बयान बदल भी दें, तो पुलिस के पंजे से नहीं छूट सकते। वह कोई दूसरा इल्जाम लगाकर उन्हें पकड़ लेगी और फिर नया मुकदमा चलायेगी।

जालपा ने ऐसो नज़रों से देखा,मानो वह इस बात से जरा भी नहीं डरती। फिर बोली-दादा, मैं उन्हें पुलिस के पंजे से बचाने का बीड़ा नहीं लेती। मैं केवल यह चाहती हूँ कि अपयश से उन्हें बचा लूं। उनके हाथों इतने घरों की बरबादी होते नहीं देख सकती। अगर वह सचमुच में डकैतियों में शरीक होते, तब भी मैं यही चाहती कि वह अन्त तक अपने साथियों के

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