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देवीदीन ने फाटक के अन्दर झांककर कहा——हां, शायद यह बँगला छोड़ दिया।

'कहीं घूमने गये होंगे।'

धूमने जाते; तो द्वार पर पहरा होता। यह बँगला छोड़ दिया।' 'तो लौट चलें।

'नहीं, जरा पता लगाना चाहिए, गये कहाँँ।'

बँगले की दाहिनी तरफ आमों के बाग में प्रकाश दिखायी दिया। शायद खटिक बागों की रखवाली कर रहा था। देवीदीन ने बाग में आकर पुकारा——कौन है यहाँ ? किसने यह बाग लिया है ?

एक आदमी आमों की झुरमुट से निकल आया। देवीदीन ने उसे पहचानकर कहा——अरे, तुम हो जंगली। तुमने यह बाग लिया है।

जंगली ठिगना-सा गठीला आदमी था. बोला——हाँ दादा, ले लिया; पर कुछ है नहीं। दण्ड ही भरना पड़ेगा। तुम यहां कैसे आ गये ?

'कुछ नहीं, यों ही चला आया था। इस बँगलेवाले आदमी क्या हुए?'

जंगली ने इधर-उधर देखकर कनवतियों में कहा-इसमें वही मुखबिर टिका हुआ था। आज सब चले गये। सुनते हैं, पन्द्रह-बीस दिन में आयेंगे, जब फिर हाईकोर्ट में मुकदमा पेश होगी। पढ़े-लिखे आदमी भी ऐसे दगाबाज होते हैं दादा ! सरासर झूठी गवाही दी। न जाने इसके बाल बच्चे हैं या नहीं; भगवान को भी नहीं डरा !

जालपा वहीं खड़ी थी। देवीदीन ने जंगली को और जहर उगलने का अवसर न दिया। बोला——तो पन्द्रह-बीस दिन में आयेंगे, खुब मालूम है ?

जंगली——हां, पहरेवाले कह रहे थे।

'कुछ मालूम हुआ कहां गये हैं ? '

वहीं मौका देखने गये हैं जहाँ। वारदात हुई थी।'

देवीदीन चिलम पीने लगा और जालपा सड़क पर आकर टहलने लगी। रमा की यह निन्दा सुनकर उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था। उसे रमा पर क्रोध न आया, ग्लानि न आयी; उसे हाथों का सहारा देकर इस दलदल से निकालने के लिए उसका मन विकल हो उठा। रमा चाहे

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