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सूझी। उसका दिल उछल पड़ा; पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका। मोह ! कितनी नीचता है ! कितना कपट, जितनी निर्दयता ! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता ! उसके मन ने धिक्कारा। अगर इस वक्त उसे कोई हजार रुपया दे देता, तो वह उसका उम्र-भर के लिये मालाम हो जाता। दयानाथ ने पूछा- कोई बात सूझी ?

'मुझे तो कुछ नहीं सूझती।'

"कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा !'

“आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'

'क्यों नहीं उमसे दो-तीन गहने मांग लेते ? तुम चाहो, तो ले सकते हो। हमारे लिये मुश्किल है।'

'मुझे शर्म आती है।'

'तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे, न मुझे माँगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी ? मैं एक बार नहीं हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रक्खो मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते ? तुम्हीं अपनी मां से पूछो।

जानेश्वरी ने अनुमोदन किया-मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिन्ता में पड़ा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूँ। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते ? एक-एक करके सब निकल गये। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ावा नहीं गया था; मगर पाँच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी न नसीब हुआ।

दयानाय जोर देकर बोले- शर्म करने का यह अबसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा !

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा-मैं मांग तो नहीं सकता, कहिये उठा यह कहते-कहते लज्जा,क्षमा और अपनो नीचता के ज्ञान से उसकी आँखें सजल हो गयीं।

दयानाथ ने भौंचक्के होकर कहा-उठा लायोगे, उससे छिपाकर ?

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा--और आप क्या समझ रहे हैं ?

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