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दरोगा——मेरी समझ में कोई बात नहीं आती। अगर कह दें कि तुम्हारे ऊपर कोई इल्जाम नहीं है, तो फिर उसको गन्ध भो न मिलेगी।

'अच्छा, म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से पूछिए।'

दारोगा ने फिर नम्बर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा। दारोगा- आपके यहाँ रमानाथ नाम का कोई क्लर्क था ?

जवाब——जी हाँ, था।

दारोगा——वह कुछ रुपया ग़बन करके भागा है ?

जवाब नहीं। वह घर से भागा है, पर गबन नहीं किया। क्या यह आपके यहाँ है?

दरोगा——जी हो. हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह स्खुद कहता है कि मैंने रुपये गबन किये। वात क्या है ?

जवाब——पुलिस तो लालबुझक्कड़ है ! जरा दिमाग लड़ाइये।

दारोगा—— यहाँ तो अक्ल काम नहीं करती।

जंबाव——यहीं क्या, कहीं भी नहीं करती। सुनिये, रमानाथ ने मीजान लगाने में गलती की, डरकर भागा। बाद को मालूम हुन्ना, कि तहसील में कोई कमी न थी ? पायी समझ में बात ?

डिप्टी——अब क्या करने होमा, खाँ साहब ! चिड़िया हाथ से निकल गया।

दारोगा——निकल कसे जायगी हज़र ? रमानाथ से यह बात कही हो क्यों जाय। बस, उसे किसी आदमी से मिलने न दिया जाय जो बाहर की खबरें पहुंचा सके। घरवालों को उसका पता अव लग जायेगा ही। कोई न कोई जरूर उसकी तलाश में प्रायेगा। किसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लायोजाय। जबानी इतमोनान दिया जाम। कह दिया जाय, कमिश्नर साहब को माफीनामे के लिए रिपोर्ट की है। इन्स्पेक्टर साहब से भी राय ले ली जाय।

इधर तो वह लोग सुपरिटेंडेंट से परामर्श कर रहे थे, उधर एक घण्टे में देवीदीन लौटकर थाने आया तो कांसटेबल ने कहा——दारोगा जी तो साहब के पास गये।

देवीदीन ने घबड़ाकर कहा——तो बाबूजी को हिरासत में डाल दिया ?

कांसटेबल——नहीं, उन्हें भी साथ ले गये।

ग़बन
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