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इन्स्पेक्टर——हलफ से कहता हूँ, आज सुबह से हम लोग यही कर रहे हैं। बेचारा बाप लड़के के पैरों पर गिरा; पर लड़का किसी तरह राजी नहीं होता।

कुछ देर तक चारों आदमी विचारों में मग्न बेठे रहे। अन्त में डिप्टी ने निराशा के भाव से कहा——मुकदमा नहीं चलने सकता। मुफ्त का बदनाम हुआ।

इन्स्पेक्टर——एक हफ्ते की मुहलत और लीजिये, शायद कोई टूट जाय। यह निश्चय करके दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए। छोटे दारोगा भी उनके साथ ही चले गए। दारोगाजी ने हुक्का मंगवाया, कि सहसा एक मुसलमान सिपाही ने आकर कहा-दारोगाजी लाइए, कुछ इनाम दिलबाइए। एक मुलज़िम को शुवहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ। पहले नाम और सकूमत दोनों गलत बतलाई थी। देवीदीन खटीक जो नुक्कड़ पर रहता है, उसी के घर टहरा हुआ है। जरा डाँट बताइयेगा, तो सब कुछ उगल देगा।

दारोगा देवादीन वही है न, जिसके दोनों लड़के....

सिपाहो-जी हाँ, वही है।

इसने में रमानाथ भो दारोगा के सामने हाजिर किया गया। दरोगा में उसे सिर से पाँव तक देखा मानो मन में उसका हुलिया मिला रहे हों। तब कठोर दृष्टि से देखकर बोले——अच्छा यह इलाहाबाद का रमानाथ है। खूब मिले भाई। छः महीने से परेशान कर रहे हो। कैसा साफ हुलिया है कि अन्धा भी पहचान ले ! यहाँ कब से आये हो?

कांसटेबल ने रमा को परामर्श दिया——सब हाल सच-सच कह दो तो तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी।

रमा ने प्रसन्नचित्त बनने की चेष्टा करके कहा——अब तो आपके हाथ में हैं, रियायत कीजिए या सस्ती कीजिए। इलाहाबाद को म्युनिसिपैलिटी में नौकर था। हिमाकत कहिए या बदनसीबी, के चार सौ रुपये मुझसे खर्च हो गये। मैं वक्त पर रुपये जमा न कर सका। शर्म के मारे घर के आदमियों से कुछ न कहा। नहीं तो इतने रुपये का इन्तजाम हो जाना कोई मुश्किल न था। जब कुछ वश न चला तो वहां से भागकर यहाँ चला आया। इसमें एक हर्फ भी गलत नहीं है।

ग़बन
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