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रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा——लो, कलम खाती हूँ, न जाऊँगी चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय। मेरे लिए वहाँ क्या रखा हैं। बँगला भी क्यों बेंचू। दो-ढाई सौ मकानों का किराया है ! हम दोनों के गुजर के लिए काफी है। मैं आज ही मुणि से कह दूँगी—— मैं न जाऊँगी।

सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा—— यह शतरंज किसके साथ खेल रही थी?

जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पासा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह सुनाई। मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझज, पागलपन न खयाल करे; लेकिन रतन सुनते ही बाग-बाग हो गयी। बोली——दस रुपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रुपये कर दो, मैं देती हूँ।

जालपा ने शंका—— कीलेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे अच्छे शतरंजबाजों ने मैदान में कदम रखा तो?

रतन ने दृढ़ता से कहा——कोई हरज नहीं। बाबुजी की निगाह पड़ गयी. तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आयेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जायगा। प्रखबार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जाचगा। तुमने बहुत प्रच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा। मैं आप की प्रेरणा की कायल हो गयी हूँ। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ते चली गयी थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, वहाँ जाना अच्छा न होगा।

जालपा——तो तुम्हें आशा है ?

'पूरी। मैं कल सबेरे रुपये लेकर आऊँगी।'

'तो मैं नाज खत लिख रखूगी। किसके पास भेजूं ? वहाँ का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिये।'

'वहाँ तो 'प्रजा-मित्र' की बड़ी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पड़ते नजर पाते थे।'

'तो 'प्रजा-मित्र' ही को लिखूगी, लेकिन रुपये हड़प कर जाय और नकशा न छापे तो क्या हो ?'

'हो क्या, पचास रुपये ही तो ले जायगा। दमड़ों की हँडिया खोकर कुत्ते

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