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दौड़ी हुई गयी और वह कापी उठा लायी ! यह नक्शा उस कापी में मौजूद था, और नक्शा ही न था, उसका हल भी दिया हुआ था। जालपा के मन में सहसा यह विचार चमक पड़ा, इस नक्शे को किसी पत्र में छपा दूँ तो कैसा हो। शायद उनकी निगाहें पड़ जाय। यह नक्शा इतना सरल तो नहीं है कि आसानी से हल हो जाय। इस नगर में जब कोई उनका सानी नहीं है, तो ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं हो सकती, जो यह नक्शा हल कर सकें। कुछ भी हो, जब उन्होंने यह नक्शा हल कर दिया है, तो इसे देखते ही फिर हल कर लेंगे। जो लोग पहली बार देखेंगे, उन्हें एक-दो दिन सोचने में लग जायेंगे। मैं लिख दूँगी, कि जो सबसे पहले हल कर ले, उसी को पुरस्कार दिया जाय। जुमा तो है ही ! उन्हें रुपये न भी मिलें, तो भी इतना सम्भव है हो कि हल करने वालों में उनका नाम भी हो। कुछ पता तो लग जायगा। कुछ भी न हो, तो रुपये ही तो जायेंगे। दस रुपये का पुरस्कार रख दूँ। पुरस्कार कम होगा, तो कोई बड़ा खिलाड़ी इधर ध्यान न देगा। यह बात भी रमा के हित की होगी।

इसी उधेड़बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न गयी, तो उससे न रहा गया। आज वह प्रतिशोध के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज मोटर चलाने की धुन थी, पर आज वह तांगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दी और उसे चार आने दे दिये। कुछ आगे और बढ़ी, तो दो कांस्टेबुल एक कैदी को लिये जा रहे थे। उसने मोटर रोककर एक कांस्टेबुल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा——इस कैदी को मिठाई खिला देना। कांस्टेबुल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान् का मुंह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा——क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी, दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरंत मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा- यहीं है न ? तुमने मुझसे न कहा।

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