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रतन अभी तक कविराज को बाट जोह रही थी ! टीमल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रखा। साठ वर्ष तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह का स्पर्श करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हए, उसे ऐसा विराग हो रहा था, जो ग्लानि से मिलता था। अभी जिन चरणों पर सिर रखकर वह रोयी थी, उसे छूते हुए उसकी उँगलिया-सी कटी जाती थीं। जीवन-सूत्र इतना कोमल है, उसने कभी न समझा था। मौत का खयाल कभी उसके मन में न आया था। उस मौत ने आँखों के सामने उसे लूट लिया !

एक क्षण के बाद टीमल ने कहा-बहुजी, अब क्या देखती हो, खाट के नीचे उतार दो, जो होना था हो गया।

उसने पैर पकड़ा, रतन ने सिर पकड़ा और दोनों ने, शब को नीचे लिटा दिया और वहीं जमीन पर बैठकर रतन रोने लगी, इसलिए नहीं कि संसार में अब उसके लिए कोई अवलम्ब न था, बल्कि इसलिए कि वह उनके साथ अपने कर्तव्य को पूरा न कर सकी।

उसी वक्त मोटर की आवाज आयी और कविराज ने पदार्पण किया।

कदाचित् अब भी रतन के हृदय में कहीं आशा की कोई बुझती हुई चिनगारी पड़ी हुई थी। उसने तुरन्त आँखें पोंछ डालों; सिर का अंचल सँभाल लिया , उलझे हुए केश समेट लिये और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात ते आकाश की अपनी सुनहरी किरणों से रंजित कर दिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का भी यही प्रभात था ?

३१

उसी दिन शव काशी लाया गया। यहीं उसकी दाह-क्रिया हुई। वकील साहब के एक भतीजे मालवे में रहते थे। उन्हें तार देकर बुला लिया गया। दाह-क्रिया उन्होंने की। रतन को चिता के दृश्य की कल्पना ही से रोमांच होता था। वहाँ पहुँचकर शायद वह बेहोश हो जाती।

जालपा आजकल प्रायः सारे दिन उसी के साथ रहती। शोकातुर रतन को न घर-बार की सुधि थी, न खाने-पीने की। नित्य ही कोई-न-कोई ऐसी बात याद आ जाती. जिस पर वह घण्टों रोती! पति के साथ उसका

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