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बजे थे। सबेरा होने में अभी चार घण्टे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आयेंगे। यह सोचकर वह हताश हो गयी। यह अभागिन रात क्या अपना काला मुँह लेकर विदा न होगी? मालूम होता है, एक युग हो गया।

कई मिनट के बाद वकील साहब की साँस रुकी; सारी देह पसीने से तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिये पर सिर रखकर फिर आँखें बन्द कर लींं।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा-रतन, अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपराध....

उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिये और उसकी ओर दीन याचना की आँखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुँह से आवाज न निकाली।

रतन ने चीखकर कहा-टीमल! महाराज! क्या दोनों मर गये?

महाराज ने आकर कहा-मैं सोया थोड़े ही था, बहूजी! क्या बाबू जी....

रतन ने डाँटकर कहा-बको मत, जाकर कविराज को बुला लाओ। कहना, अभी चलिए।

महाराज ने तुरन्त अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी, कि शायद सेंक से कुछ फा़यदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता सारा शोक मानो लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।

स्टोव जलाकर उसने रुई के गाले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी। आवाज काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले-तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है, मुन्नी! क्या जानता था इतनी जल्द यह समय आ जायेगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, प्रिये! ओह, कितना बड़ा अन्याय! मन की सारी लालसा मन में रह गयी। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया-क्षमा करना।

यही अन्तिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था, यही मोह का अन्तिम बन्धन था।

रतन न द्वार की ओर देखा। अभी तक महाराज का पता न था। हां,

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