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मोटर चल दी, तब उसकी जान-में-जान आयी।उस दिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से निकला तक नहीं।

कभी-कभी पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबराता कि पुलिस में जाकर सारी कथा कह सुनाये। जो कुछ होना है, हो जाय। साल-दो-साल की कैद इस आजीवन कारावास से तो अच्छी ही है। फिर वह नये सिरे से जीवन- संग्राम में प्रवेश करेगा, हाथ-पाँच बचाकर काम करेगा, अपनी चादर के बाहर जी भर भी पाँव न फैलायगा, लेकिन एक क्षण में हिम्मत टूट जाती।

इस प्रकार दो महीने और बीत गये। पुस का महीना आया। रमा के पास जाड़ों का कोई कपड़ा न था। घर से तो वह कोई चीज़ लाया ही न था, यहाँ भी कोई चीज बनवा न सका था। अब तक तो उसने धोती ओढ़कर किसी तरह राते काटीं; पर पूस के कड़कड़ाते जाड़े लिहाफ या कम्बल के बगैर कैसे कटते। बेचारा रात-भर गठरी बना पड़ा रहता। जब बहुत सर्दी लगती तो बिछावन ओढ़ लेता। देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी। उसके घर में शायद यही सबसे अच्छा बिछावन था। इस श्रेणी के लोग चाहे दस हजार के गहने पहन लें, शादी-ब्याह में दस हजार खर्च कर दें; पर बिछावन गूदड़ा ही रखेंगे। इस सड़ी हुई दरी से जाड़ा भला क्या जाता; पर कुछ न होने से अच्छा ही था। रमा संकोचवश देवीदीन से कुछ कह न सकता था और देवीदीन भी शायद इतना बड़ा खर्च न उठाना चाहता था; या सम्भव है, इधर उसकी निगाह ही न जाती हो। जब दिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दौड़ती चली आती हो। रात को बार-बार खिड़की खोलकर देखता कि सबेरा होने में कितनी कसर है।

एक दिन शाम को वह वाचनालय में जा रहा था कि उसने देखा, एक बड़ी कोठी के सामने हजारों कँगले जमा हैं। उसने सोचा—यह क्या बात है; क्यों इतने आदमी जमा हैं ? भीड़ के अन्दर घुसकर देखा तो मालूम हुआ, सेठजी कम्बलों का दान कर रहे हैं। कम्बल बहुत घटिया थे, पतले और हलके, पर जनता एक-पर-एक टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आया, एक कम्बल

ले लें। यहाँ मुझे कौन जानता है? अगर कोई जान भी जाय तो क्या हरज? गरीब ब्राह्मण मगर दान का अधिकारी नहीं तो और कौन है; लेकिन एक ही

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