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तक देवीदीन के घर पड़ा हुआ है। उसे हमेशा यही धुन सवार रहती है कि.रुपये कहाँ से आये; तरह-तरह के मन्सूवे बांधता है, भांति-भांति को कल्पनाएँ करता है पर घर के बाहर नहीं निकलता। हाँ, जब खूब अंधेरा हो जाता है तो वह एक बार मुहल्ले के वाचनालय में जरूर जाता है। अपने नगर और प्रान्त के समाचारों के लिए उसका मन सदैव उत्सुक रहता है। उसने वह नोटिस देखी, जो दयानाथ ने पत्रों में छपायी थी; पर उस पर विश्वास न आया। कौन जाने, पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने के लिये माया रची हो। रुपये भला किसने चुकाये होंगे ? असम्भव !

एक दिन उसी पत्र में रमानाथ को जालपा का एक खत छपा मिला। जालपा ने आग्रह और याचना से भरे शब्दों में उसे घर लौट आने को प्रेरणा की थी। उसने लिखा था-तुम्हारे जिम्मे किसी का कुछ बाकी नहीं है, कोई तुमसे कुछ न कहेगा। रमानाथ का मन चंचल हो उठा: लेकिन तुरन्त ही ख्याल आया—यह भी पुलिस की शरारत होगी। जालपा ने यह पत्र लिखा, इसका क्या प्रमाण है ? अगर यह भी मान लिया जाय, कि रुपये घरवालों ने अदा कर दिये होंगे, तो क्या इस दशा में भी वह घर जा सकता है? शहर भर में उसकी बदनामी हो ही गयी होगी, पुलिस में इत्तला की ही जा चुकी होगी। उसने निश्चय किया कि मैं नहीं जाऊँगा। जब तक कम-से-कम पांच हजार रुपये हाथ में न हो जायेंगे, घर जाने का नाम न लूंगा। और अगर रुपये नहीं दिये गये, पुलिस मेरी खोज में है, तो कभी घर न आऊँगा, कभी नहीं।

देवीदीन के घर में दो कोठरियां थीं और सामने एक बरामदा था। बरामदे में दूकान थे, एक कोठरी में खाना बनता था, दूसरी कोठरी में बरतन-भाँड़े रखे हुए थे। ऊपर एक कोठरी थी और छोटी-सी खुली हुई छत। रमा इसी ऊपर के हिस्से में रहता था। देवीदीन के रहने, सोने, बैठने का कोई विशेष स्थान न था। रात को दुकान बढ़ाने के बाद वही बरामदा शयन गृह बन जाता था। दोनों वहीं पड़े रहते थे | देवीदीन का काम चिलम पीना और दिन भर गप्पें लड़ाना था, दूकान का सारा काम तो बुढ़िया करती थी। मण्डी जाकर माल लाना, स्टेशन से माल भेजना या लेना, यह सब भी वही कर लेती थी। देवीदीन ग्राहकों को पहचानता तक न था। थोड़ी-सी हिन्दी जानता था। बैठा-बैठा रामायण, तोता-मैना, रासलीला या माता मरियम की कहानी

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