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होता है, मगर इनको तो मैं देखती हूँ, जरा भी किसी की विपत्ति सुनी और तड़प उठे।

जालपा ने मुस्कराकर कहा——बहन, एक बात पूछूँ, बुरा तो न मानोगी? वकील साहब से तुम्हारा दिल तो न मिलता होगा?

रतन का विनोद-रंजित, प्रसन्न मुख एक क्षण के लिए मलिन हो उठा। मानों किसी ने उसे चिर-स्नेह की याद दिला दी हो, जिसके नाम को वह बहुत पहले रो चुकी थी। बोली——मुझे तो कभी यह ख्याल भी नहीं आया बहन, कि मैं युवती हूँ और वे बूढ़े हैं। मेरे हृदय में जितना प्रेम, जितना अनुराग है यह सब मैंने उनके ऊपर अर्पण कर दिया। अनुराग यौवन या रूप या धन से नहीं उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे ही कारण तो वे इस अवस्था में इतना परिश्रम कर रहे हैं। और दूसरा है ही कौन !क्या यह छोटी बात है? कल कहीं चलोगी? कहो तो शाम को आऊँ?

जालप——जाऊँगी तो मैं कहीं नहीं। मगर तुम आना जरूर। दो घड़ी दिल बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता। मन डाल-डाल दौड़ता फिरता है। समझ में नहीं आता, मुझसे इतना संकोच क्यों किया। यह भी मेरा ही दोष है। मुझमें जरूर कोई ऐसी बात देखी होगी जिसके कारण मुझसे पर्दा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझे यही दुःख है कि मैं उनका सच्चा स्नेह पा सकी। जिससे प्रेम होता है, उससे हम कोई भेद नहीं रखते।

रतन उठकर चली, तो जालपा ने देखा—— कंगन का बक्सा मेज़ पर पड़ा हुआ है। बोली—— इसे लेती जाओ बहन, यहाँ क्यों छोड़े जाती हो?

रतन—— ले जाऊँगी, अभी क्या जल्दी पड़ी है। अभी पूरे रुपये भी तो नहीं दिये।

जालपा——नहीं, लेती जाओ। मैं न रखूंगी।

मगर रतन सीढ़ी से नीचे उतर गयी। जालपा हाथ में कंगन लिये खड़ी रही। थोड़ी देर के बाद जालपा ने संदूक से पांच सौ रुपये निकाले,और दयानाथ के पास जाकर बोली—— ये रुपये लीजिए, नारायणदास के पास भिजवा दीजिए। बाकी रुपये भी जल्द ही दे दूँगी। दयानाथ ने झेंंप कर कहां—— रुपये कहाँ मिल गये?

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