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वह दफ्तर पहुँची रमेश बाबू उसे देखते ही बोले——क्या। हुआ,घर पर मिले?

जलपा-क्या अभी तक यहाँ नहीं आये? घर तो नहीं गये। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिन्दा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।

रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले- ठीक है, मगर यह अब तक कहाँ हैं। अगर न आना था तो एक खत लिख देते। मैं तो बड़े संकट में पड़ा हुआ था। तुम बड़े वक़्त से आ गयी। इस वक़्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जी खुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।

जलपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली, तो उसे मालूम हो रहा था मैं कुछ ऊंची हो गयी हूँ। शरीर से एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिन्तित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी। जब घर पहुँची तो रमानाथ का कहीं पता न था।

रामेश्वरी ने पूछा-कहाँ चली गयी थी इस धूप में?

जलपा-एक काम से चली गयी थी। आज उन्होंने भोजन भी नहीं किया, न जाने कहाँ चले गये।

रामेश्वरी——दफ्तर गये होंगे।

जलपा——नहीं, दफ्तर नहीं गये। वहीं से एक चपरासी पूछने आया था।

यह कहती हुई वह ऊपर चली गयी। बचे हुए रुपये सन्दूक में रखें और पंखा झलने लगी। मारे गरमी के देह फुंकी जा रही थी, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी जरा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।।

चार बजे तक तो जलपा को विशेष चिन्ता न हुई, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, उसको चिन्ता बढ़ने लगी। आखिर वह सबसे ऊँची छत पर चढ़ गयी, हालांकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था और वहाँ चारों तरफ़ नजर दौड़ायी;लेकिन रमा किसी तरफ से आता दिखायी न दिया।

जब सन्ध्या हो गयी,और रमा घर न आया तो जलपा काजी घब-

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