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जान दे दे; घर के आदमियों को भूखी मारें; घर की चीजें बेचे। और कहाँ तक कहूँ, अपनी आबरू तक बेच दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है। कलकत्ते में कहाँ काम करते हो भैया?

रमा-अभी तो जा रहा। देखूँ कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?

देवी०——तो फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियाँ हैं, सामने दलान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूं तो दस हजार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूँगा। जब वहीं काम मिल जाय तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भाग कर हबड़े गया था, तब से सुख भी देखे और दुःख भी देखे। अब मना रहा हूँ, भगवान ले चलो। हाँ बुढ़िया को अमर कर दो,नहीं उसकी दुकान कौन खोलेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा!

यह कहकर देवीदीन फिर हँसा। वह इतना हंसोड़, प्रसन्न-चित्त था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात की बात पर हँसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं उस पर उसे हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यौं हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन-कथा कह सुनायी। कितने ही लतीफ़े याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षों की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढन्त कथा कहनी पड़ी।

देवीदीन——तो तुम भी घर से भाग आये हो? समझ गया। घर में झगड़ा हुआ होगा। बहू कहती होगी—— मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास-बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा।

रमा——हाँ बाबा, बात यही है; तुम कैसे जान गये?

देवीदीन हंसकर बोला—— यह बड़ा भारी मन्त्र है भैया। इसे तेली को खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लड़के-बाले तो नहीं हैं न?

रमा०——नहीं अभी तो नहीं हैं।

देवी०——छोटे भाई भी होंगे?

रमा चकित होकर बोला——हाँ दादा, ठीक कहते हो। तुमने कैसे जाना?

देवीदीन फिर ठट्टा मारकर बोला——यह सब मन्त्रों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों?

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