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किसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी में आया——गाड़ी से कूद पड़े,इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आँखें भर आयी,उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा।

सहसा एक बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा—कलकत्ते में कहाँ जाओंगे बाबूजी?

रमा में समझा यह गंवार मुझे बना रहा है, झुंझलाकर बोला- तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊँगा।

बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ व्यान भी न दिया, बोला——मैं भी वहीं चलूंगा। हमारा तुम्हारा साथ हो जाएगा। फिर धीरे से बोला——किराये रुपये मुझसे ले लो, वहाँ दे देना।

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई ६०-७० साल का बूढा घुला हुआ आदमी था। मांस तो बना हड्डियां तक गल गयी थी। मूंछ और सिर की बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी-शी वकुची के सिवा उसके पास और कोई असवाव भी न था।

रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला-आप हबड़े ही उतरेंगे या और कहीं जायेंगे?

रमा में एहसान के भार से दबकर कहा-बाबा, आगे में उतर पडूंगा। रुपये का कोई वन्दोबस्त करके फिर आऊँगा।

बुढ़ा——तुम्हें कितने रुपये चाहिए, मैं भी तो नहीं चल रहा है। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दस-पाँच रुपये लेकर भाग जाओगे? कहाँ घर है?

रमा——यहीं प्रयाग ही में रहता हूँ।

बुढ़े ने सरल भाव से कहा——धन्य है प्रयाग ! धन्य है ! मैं भी त्रिवेणो का स्नान करके आ रहा हूँ, सचमुच देवताओं को पुरी है। तो के रुपये निकालू?

रमा ने सकुचाते हुए कहा——मैं चलते-ही-चलते रुपया न दे सकूगा, यह समझ लो।

बूढ़े ने सरल भाव से कहा——अरे बाबूजी, मेरे दस-पांच रुपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग के परदे यात्रियों को बिना लिखाये-पढ़ाये रुपये दे देते हैं। दस रुपये से तुम्हारा काम चल जायगा?

रमा ने सिर झुकाकर कहा——हाँ, बहुत है।

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