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अभी गाड़ी को चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का दरवाजा खुला, और टिकट बाबू अन्दर आये। रमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जायेगा। इतने आदमियों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी को गति तीव्र होती जाती थी। आखिर बला सिर पर आ ही गयी। टिकट बादू ने पूछा——यापका टिकट?

रमा ने जरा सावधान होकर कहा——मेरा टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रुपये दिये थे न जाने किधर निकल गया।

टिकट बाबू को यकीन न आया, बोला——मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहाँ जा रहे है?

रमा०——सफर तो बड़ी दूर का है, कलकत्ते तक जाना है।

टिकट बाबू——भागे के स्टेशन पर टिकट ले लीजियेगा।

रमा०——यही तो मुश्किल है। मेरे पास पच्चीम का नोट था। खिड़की पर बड़ी भीड़ थी। मैंने नोट उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया; पर वह ऐसा गायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हैं। लम्बा-लम्बा चेनकरू आदमी है।

टिकट बाबू——इस विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते हैं। मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।

रमा ने बिनती के भाव से कहा—— भाई साहब, आपसे क्या छिपाऊँ? मेरे पास और रुपये नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब सबमें, करें।

टिकट बाबू——मुझे अफसोस है बाबू सहब, कायदे से मजदूर हुँ।

कमरे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफली करने लगे। तीसरा दरजा था, अधिकांश मजदूर बैठे हुए थे, जो नजूरी को टोह में पूरब जा रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भांति अपमानित होते देखकर आनन्द पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्के देकर उतार दिया होता तो और भी खुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी मैप न हई थी। चुपचाप सिर झुकाये खड़ा था। अभी तो जीवन की इस नयी यात्रा का प्रारम्भ हुआ है। न जाने आगे क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेगी। किस-

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