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जायेंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लू; किन्तु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरवी रखकर काम चला लूँ ! ज्यों ही रुपये हाथ में आ जायेंगे, छुड़ा दूंगा ! अगर मजबूरी न आ पड़ती, तो तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना ! मैं बहुत जल्द छुड़ा दूगाँ....

अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गये और बोले—— कहा उनसे तुमने?

रमा ने सिर झुकाकर कहा——अभी तो मौका नहीं मिला।

रमेश——तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा? मैं डरता हूँ कि कहीं आज तुम योही खाली हाथ न चले जाओ। नहीं तो गजब ही हो जायें!

रमा०——जब उनसे मांगने का निश्चय कर लिया तो अब क्या चिता।

रमेश०——आज मौका मिले तो जरा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है, तुम भूल गये?

रमा०——भूल तो नहीं गया, लेकिन उससे कहते शर्म आती है।

रमेश०——अपने बाप से कहते शर्म आती है, रतन से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता. तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?

रमेश बाबू चले गये, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आया था। उसने अपनी सबसे सुन्दर साड़ी पहनी थी। हाथों में जड़ाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार। आईना सामने रखे हुए कानों में झूमके पहन रही थी। रमा को देखकर बोली——आज सबेरै कहाँ चले गये थे? हाथ-मुँह तक न धोया। दिन-भर तो बाहर रहते ही हो, शाम-सबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते तो घर सूना-सूना लगता है! मैं अभी सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो जाऊँ या न जाऊँ? मेरा जी तो वहाँ बिलकुल न लगे।

रमा०——तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो।

जालपा——सेठानी जी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊँगी। रमा की दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी, जो हिरनी को अपने

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