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बैठे सन्ध्या कर रहे थे। इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा। कोई आध-घण्टे में सन्ध्या समाप्त हुई। बोले——क्या अभी मुँँह-हाथ भी नहीं धोया?

यही लीचड़पन मुझे नापसन्द है। तुम कुछ करो या न करो, बदन को सफ़ाई तो करते रहो। क्या हुआ, रुपये का कुछ प्रबन्ध हुआ?

रमा०——इसी फ़िक्र में तो आपके पास आया हूँ।

रमेश——तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छुट जाओगे। उनसे सारी बात साफ़-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएँ अक्सर हो जाया करती है। इसमें डर की क्या बात है। नहीं कहो, मैं चलकर कह दूँ।

रमा०——उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता। क्या आप कुछ बन्दोबस्त नहीं कर सकते?

रमेश—— कर क्यों नहीं सकता; पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते? मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपया न देंगे, तब मेरे पास आना।

रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहाँ से उठा; पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौधैया में आकाश से गिरते हुए जल-बिन्दुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेजी से आगे चलता, तो फिर सोचकर रुक जाता और दस-पांच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस पली में।

सहसा उसे एक बात सूझी। क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी के कठिनाइयाँ कह सुनाऊँ? मुँह से तो वह कुछ कह न सकता था; पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा, और बाहर के कमरे में आ बैठूँगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरन्त यह पत्र लिखा——

'प्रिये, क्या कहूँ, किस विपत्ति में फंसा हुआ हैं। अगर एक घण्टे के अन्दर तीन सौ रुपये का प्रबन्ध न हो पाया, तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़

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