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रमा ने मुस्कुराते हुए कहा-क्या वरदान मांगती?

'माँगती जो जी में आता, तुम्हें क्यों बता दूँ?

'नहीं बताओ, शायद तुम बहुत-सा धन माँगती।'

'धन को तुम बहुत बड़ी चीज समझते होगे। मैं तो कुछ नहीं समझती।'

'हाँ, मैं तो समझता हूँ। निर्धन रहकर जीना मरने से भी बदतर है।

मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊँ, तो बिना काफी रुपये लिये न माँँनू।

मैं सोने की दीवार नहीं खड़ा करना चाहता, न राकफेलर और कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है; मैं केवल इतना धन चाहता हूँ कि जरूरत की मामूली चीजों के लिए तरसना न पड़े। बस, कोई देवता मुझे पाँच लाख दे दे, तो मैं फिर उससे कुछ न मागूंगा। हमारे ही गरीब मुल्क में ऐसे कितने ही रईन, सेठ, ताल्लुकेदार है जो पाँच लाख एक साल में खर्च करते हैं, बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पांच लाख' होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूँ; मगर मुझे कोई इतना भो नहीं देता। तुम क्या माँगती? अच्छे-अच्छे गहने?

जालपा ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा——क्यों चिढ़ाते हो मुझे, क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूँ? मैंने तो तुमसे कभी पात्रह नहीं किया। तुम्हें जरूरत हो, तो अाज उन्हें उठा ले जानो, मैं खुशी से दे दूँगी।

रमा ने मुसकराकर कहा——तो फिर बतलाती क्यों नहीं?

जालपा——मैं यही माँगती, कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे. उसका मन कभी मुझसे न फिरे?

रमा ने हँसकर कहा——क्या तुम्हें इसको भी शंका है?

'तुम देवता भी होते, तो शंका होती, तुम तो आदमी हो। मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली जिसने अपनी पति की निष्ठुरता का दुखड़ा न रोया हो।

साल-दो-साल तो वह खूब प्रेम करते हैं; फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बड़ी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा में और क्या वरदान मांगती? —— यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बाहें डाल दी और प्रणय-खचित नेत्रों से देखती हुई बोली——सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो जैसे पहले चाहते थे? देखो, सच कहना, बोलो!

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