रमा——सोच किस बात का? क्या मैं उदास हूँ ?
जालपा——हाँ, किसी चिन्ता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो।
रमा——ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?
जालपा——वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियो की आज्ञा नहीं है।
रमा——मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूँ।
जालपा——यह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे हृदय में बैठकर देखती।
रमा——वहाँ तुम अपनघ ही प्रतिमा देखती।
रात को जालपा ने एक भयकार स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा——क्या है जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो ?
जालपा ने इधर-उधर घबड़ाई हुई आँखों से देखकर कहा——बड़े संकट में जान पड़ी थी ! न जाने कैसा सपना देख रही थी।
रमा——क्या देखा?
जालपा——क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी, कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भयंकर रूप था उनका !
रमा का खून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उड़ा दिया होता, इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका, पर बाहर से हँसकर बोला——तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो ?
जालपा——तुम्हें हंसी सूझ रही है, मेरा हृदय काँप रहा है।
थोड़ी देर बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया——अम्मा, कहे देता हूँ, फिर मेरा मुँह न देखोगी, मैं डूब मरूंगा।
जालपा को अभी तक नींद न आयी थी। भयभीत होकर उसने रमा को जोर से हिलाया और बोली—— मुझे तो हँसते थे, और खुद बकने लगे। सुनकर रोएँ खड़े हो गये। स्वप्न देखते थे क्या ?
रमा ने लज्जित होकर कहा——हाँ जी, न जाने क्या देख रहा था। कुछ याद नहीं।