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रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो शंका होने लगती है कि इनकी नीयत बहुत खराब है। तो कल कब आइएगा ?

रमा -- भई, कल मैं रुपये लेकर तो न आ सकूँगा, यों जब कहो तब चला जाऊँ। क्या, इस वक्त अपने सेठ जी से चार-पाँच सौ रुपयों का वन्दोबस्त न करा दोगे ? तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूँगा।

चरन ०-- कहाँ की बात लिए फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा ?

रमा ने झल्लाकर कहा -- तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़े मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूँ, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूँ। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?

चरन ०-- साल भर हुआ एक कौड़ी नहीं मिली। अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ को फिकर कर रखिएगा।

रमा ०-- मैने कह दिया, मेरे पास अभी नहीं हैं।

चरन ०-- रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो रुपये नहीं हैं ! कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी जायेगा ज़रूर।

रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उलटे तकाज़ा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज दे। आग ही हो जायेंगे। जालपा भी समझेगी, कैसा लबाड़िया आदमी है।

इस समय रमा की आँखों से आँसू तो न निकलते थे; पर उसका एकएक रोआँँ रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की ! वह समझदार औरत है, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर भूँजी भांंग नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहनें न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुँह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शमा जानने के लिए मरा जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया। मुझे एक-एक पैसा दाँतों से पकड़ना चाहिए था। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हजार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये जरूर अदा हो

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